Radhika Krishna : Darshan Alekh : Dr R.K.Dubey


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कृण्वन्तो विश्वमार्यम. 
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 डॉ. आर के दुबे.


लेखक कवि विचारक. 
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एम. एस. मीडिया शक्ति* प्रस्तुति : पृष्ठ :


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तुलसी का वायु ज्ञान : राम भक्त हनुमानआलेख :  आज :  पृष्ठ : १ / २ / ४
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 डॉ. आर के दुबे.
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हनुमान का लंका दहन 

सुन्दरकाण्ड पढ़ते हुए २५ वें दोहे पर ध्यान थोड़ा रुक गया। तुलसीदास ने सुन्दर काण्ड में जब हनुमान जी ने लंका में आग लगाई थी, उस पर बहुत ही सुंदर  लिखा है– 
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥२५॥
अर्थात, जब हनुमान जी ने लंका को अग्नि के हवाले कर दिया तो,भगवान की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान जी अट्टहास करके गरजे  और आकार बढ़ाकर आकाश से जा लगे।
मन में विचार हुआ कि इन उनचास मरुत का क्या अर्थ है ? यह तुलसीदासजी ने भी नहीं लिखा। फिर सुन्दरकाण्ड पूरा करने के बाद समय निकालकर ४९  प्रकार की वायु के बारे में जानकारी खोजी और अध्ययन करने पर सनातन धर्म पर अत्यंत गर्व हुआ। तुलसीदासजी के वायु ज्ञान पर सुखद आश्चर्य हुआ, जिससे शायद आधुनिक मौसम विज्ञान भी अनभिज्ञ है।
वायु का वर्णन : दरअसल, जल के भीतर जो वायु है उसका वेद -पुराणों में अलग नाम दिया गया है और आकाश में स्थित जो वायु है उसका नाम अलग है। अंतरिक्ष में जो वायु है उसका नाम अलग और पाताल में स्थित वायु का नाम अलग है। नाम अलग होने का मतलब यह कि उसका गुण और व्यवहार भी अलग ही होता है। इस तरह वेदों में ७  प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है।
वेदों में वर्णित ७ प्रकार की वायु ये हैं : १ .प्रवह, २ .आवह, ३ .उद्वह, ४ . संवह, 
५ .विवह, ६ .परिवह और ७ .परावह
१ . प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमण्डलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
२ . आवह : आवह सूर्यमण्डल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमण्डल घुमाया जाता है।
३ . उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मण्डल घुमाया जाता है। 
४ . संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मण्डल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर सम्पूर्ण नक्षत्र मण्डल घूमता रहता है।
५ . विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मण्डल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
६ . परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमण्डल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
७ . परावह : वायु के सातवें स्कन्ध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मण्डल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
इन सातों वायु के सात सात गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं–ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व दिशा, भूलोक की पश्चिम दिशा, भूलोक की उत्तर दिशा और भूलोक कि दक्षिण दिशा। इस तरह ७ x ७  = ४९ । कुल ४९  मरुत हो जाते हैं जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं। है ना अद्भुत ज्ञान। 
हम अक्सर रामायण, भगवद् गीता पढ़ तो लेते हैं परन्तु उनमें लिखी छोटी-छोटी बातों का गहन अध्ययन करने पर अनेक गूढ़ एवं ज्ञानवर्धक बातें ज्ञात होती हैं।

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सम्पादकीय : गद्य  : आलेख :  आज :  पृष्ठ : १ / २ / ३  
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 डॉ. आर के दुबे.
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भगवान श्रीकृष्ण  ' ऋतूनां कुसुमाकर: ' 
कामदेव : बसंत : शिव : राम : कृष्ण : 


बगरो बसंत की अद्भुत महिमा है । भगवान राम को जन्म लेना था तो इसी को चुना और भगवान कृष्ण तो गीता में खुद को ही बसंत बताते है - ऋतूनां कुसुमाकर: । इसीलिए इसे ऋतुराज कहते हैं । कई पौराणिक सुघटनाओं को इसने अपने अंक में जगह दी है । 
तारकासुर के बध की खुशी हुई तो होलिका का दहन भी इसी ऋतु में हुआ और परम भागवत प्रह्लाद की अग्नि से रक्षा हो सकी। 
भगवान शिव ने तीसरी आंख खोली और इसी बसंत में कामदेव खाक हो गए । बेचारी रति की गुहार से भोलेनाथ पिघले और काम को अशरीरी जीवन का दान मिला ।
बसंत ने बहुत सी खुशियाँ समाज को दी हैं और उसका जो प्राकृति प्रदत्त स्वाभाविक उद्दीपन है, वह तो  है ही ।
ऋतूनां कुसुमाकर :  जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया कि ' ऋतूनां कुसुमाकर:' तो हम क्यों न अनुभव करें कि बसंत के हर पल में हम श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहे हैं । यह ऋतु हमे आनंद में जीने का सुअवसर देती है; क्योंकि वे स्वयं सच्चिदानंद हैं । आनंद उनका सहज स्वरूप है । श्रीकृष्ण का पूरा जीवन प्रेम से लबालब है । जशोदा-नंद, देवकी-वासुदेव, ऋषि-महर्षि, देव-दनुज, गोपी-गोप, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या कहें कि पूरी प्रकृति द्वापर काल मे प्रेम से सराबोर रही है । हमारे पूर्वजों ने भी उनका स्मरण करते सद्गति प्राप्त की और आज हम भी उन्हें हर पल याद करने का येनकेनप्रकारेण यत्न करते हैं और यही हमारा कर्तव्य भी है - 'महाजनों येन गता स हि पंथा' । 
भक्त कवियों की दृष्टि अतिसूक्ष्म और पवित्र होती है । आप भी कवि की नजर से देखिए कि कवि पद्माकर क्या देख रहे हैं :
फ़ाग की भीर अभीरन त्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी,
भायी करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ।
छीनि पीताम्बर कामरिया, सो बिदा दई मीजि कपोरन रोरी,
नैन नचाय कही मुसकाय,लला फिर आइयो खेलन होरी ।।

कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 

 
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श्राप जो भगवन श्री कृष्ण को  भोगना पड़ा  :  पृष्ठ : १ / २ / २  
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जगत के पालनहार श्री विष्णु ने अपने आठवें अवतार में द्वापर में श्री कृष्ण के रूप में लिया। इस युग की विशेषता रही उनकी लीलाएं। भगवान श्री कृष्ण ने धर्म स्थापना के मार्ग में कई श्रापों का भोग किया। यहां हम जाने श्री कृष्ण को मिले श्रापों के बारे में :-
पहला श्राप : भगवान श्री कृष्ण को बाल्यकाल में ही पहला श्राप मिला था। एक बार ऋषि दुर्वासा गोकुल के बाहर तपस्या में लीन थे। उस समय अपनी बाल लीलाओं और शरारतों से श्री कृष्ण ने ऋषि की साधना भंग कर दी। क्रोध में ऋषि ने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि जिस मां के प्यार के कारण वे इतना शरारती है,उन से उन्हें कई वर्षों तक दूर रहना होगा। 
दूसरा श्राप : कौरवों की माता गांधारी ने श्री कृष्ण को दूसरा श्राप दिया था। महाभारत युद्ध के बाद कौरव वंश के बधुओं के विलाप सुना तो उन्होंने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि तेरे यदुवंश का नाश हो जाएगा।
तीसरा श्राप : एक बार भगवान श्री कृष्ण अपने गुरु संदीपनी मुनि के पुत्र को यमराज के पास जीवित लेने गए थे। दोनों में युद्ध हुआ।तब यमराज ने श्री कृष्ण को कहा कि वह उनके प्राण हरने से पहले ही वे खुद आ जाएंगे। और, वैसा ही हुआ भी। तो, धर्म स्थापना के क्रम में भगवान श्री कृष्ण को भी ये श्राप झेलने पड़े थे।
जय श्री कृष्ण
एक मान्यता के अनुसार सतयुग में राजा रैवत समुद्र के बीच भूमी पर कुश आसन पर कई यज्ञ किये थे। इसी जगह कुश नाम का राक्षस बहुत उपद्रव फैलाया था। तब त्रिविक्रम भगवान ने उसे भूमि में गाढ़ कर उसके उपर उसी के अराध्य देव कुशेश्वर की लिंग मूर्ती स्थापित कर दी।तब कुश के अनुनय-विनय पर उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा तो उसका आधा पुण्य उस राक्षस को मिलेगा।
३६ वर्ष तक श्री कृष्ण ने द्वारका में शासन किया। उनके वैकुंठ प्रस्थान के बाद द्वारका नगरी समुद्र में डुब गयी। केवल श्री कृष्ण का मंदिर ही बचा रहा। श्री कृष्ण के द्वारका नगरी के अवशेष आज भी समुद्र के गर्भ में मौजूद हैं।

कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 
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श्री कृष्णः एक परिचय : बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : पृष्ठ : १ / २ / १  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.  
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फोटो : श्याम तेरी बंसी को बजने से काम 

बहुपत्नीत्व के स्वामी : श्री कृष्ण : एक पत्नी का मन रखना कठिन होता है जब की श्री कृष्ण ने तो १६००८ पत्नियों को संतुष्ट रखा। नारदजी ने उनके बीच कलह उत्पन्न करने का प्रयत्न किया; परन्तु वह प्रयत्न भी असफल रहा। इसलिए श्री कृष्ण एक पति रुप में भी सफल रहे।
श्री कृष्ण एक अनुकरणीय पिता का उदाहरण थे। अपनी संतान, पोता-पोती इत्यादि के अनुचित आचरण के कारण श्री कृष्ण ने यादवी युद्ध कर स्वयं ही उन्हें मार दिया। अवतार एवं देवताओं में अपना कुल क्षय करने वाले उदाहरण है।
श्री कृष्ण  : द्वारिकाधीश : पांडवों  के सखा : श्री कृष्ण द्वारिकाधीश थे। पर उनके बचपन के मित्र सुदामा जब उनके पास सहायतार्थ आते हैं तो श्री कृष्ण ने उनका बड़े प्रेम एवं उत्साह से स्वागत किया। पांडवो का सखा होने के नाते वे उनकी सदैव सहायता करते थे। पांडवों  का श्री कृष्ण के प्रति सख्य भक्ति थी।
कला मर्मज्ञ श्री कृष्ण  :  बांसुरी बादक : नृत्य संगीत इत्यादि कलाओं के भोक्ता एवं मर्मज्ञ थे। उनके वासुरी वादन एवं रास क्रीड़ा प्रसिद्ध है। श्री कृष्ण का वासुरी वादन सुन पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते थे।
भगवान कृष्ण की बांसुरी का नाम महानंदा या सम्मोहिनी था. यह बांसुरी बहुत लंबी थी. कृष्ण को बांसुरी बजाने का बहुत शौक था. कृष्ण की बांसुरी से जुड़ी कुछ और बातें :
मान्यता है कि भगवान शिव ने महर्षि दधीची की हड्डियों से यह बांसुरी बनाई थी और इसे कृष्ण को उपहार में दिया था. 
कृष्ण की बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : माना जाता है उनकी बांसुरी की धुन सुनकर पूरा विश्व भक्तिमय हो जाता था. कृष्ण गोपियों को आकर्षित करने के लिए वेणु बांसुरी का इस्तेमाल करते थे. ज्ञात हो कृष्ण ने राधा के वियोग में प्रेम के प्रतीक बांसुरी को तोड़कर फेंक दिया था. 
कृष्ण की टूटी हुई बांसुरी का भाग्य एक रहस्य ही बना हुआ है


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राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है.  पृष्ठ : १ / २ / ०  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.  

राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है। 
मित्रों जब श्री कृष्ण की चर्चा होती है तब राधा जी का नाम जरूर आता है। राधा जिससे श्री कृष्ण बहुत प्रेम करते उनसे श्री कृष्ण का विवाह नहीं होता है। फिर भी जहां कृष्ण की चर्चा होती है राधा जी की चर्चा हुए बिन कृष्ण चर्चा पुरी नहीं होती।तब अनायास ही पश्न सम्मुख खड़ा होता है कि राधा कौन है?
राधा का स्वरूप परम दुरूह है। किशोरी जी ही राधा है। राधा का जैविक परिचय है कि वो किर्ति और वृषभानु की पुत्री है। उनकी शादी रायाण से हुई।
राधा का तात्विक परिचय है कि राधा कृष्ण की आनंद है।वो कृष्ण की ही अहलादिनी शक्ति स्वरूप है। रायाण से जिस राधा की शादी हुई वो तो छाया राधा से हुई। तात्विक राधा तो अन्तर्ध्यान हो गई थी। राधा की मृत्यु भी, कहते हैं,कि कृष्ण के बंसी बजाने पर राधा कृष्ण में ही विलीन हो गयी थी।
 समस्त वेद पुराण उनके गुणों से भरा पड़ा है। अहलादिनी भगवान को भी रसास्वादन कराती हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण की आनंद ही राधा है।महाभवस्वरुपिणी है। राधा पूर्ण शक्ति है कृष्ण पूर्ण शक्तिमान। कृष्ण सागर है तो राधा तरंग, कृष्ण फूल तो राधा सुगंध और कृष्ण अग्नि तो राधा तेज़ हैं। कृष्ण जो सब को आकर्षित करते हैं पर उनको भी आकर्षित करती है राधा। राधा अगर धन है तो कृष्ण तिजोरी।परमधन राधा जी है। प्रेम, समर्पण जहां है वहां राधा तत्व है।जनम लियो मोहन हित श्यामा। राधा नित्य है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नित्य गोलोक धाम में श्रीकृष्ण एक से दो होते हैं। राधा का उनके बाम अंग से प्राकट्य होता है।
और, राधा जी से ही उनकी आठों  सखियां -ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, श्री रंगदेवी तुंगविद्या, चंपकलता और सुदेवी का प्रकाट्य है।
कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 


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भजन :गीत : संगीत : पृष्ठ : २ 
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भजन : तुम्हें हनु कहूं  या हनुमत  
गीत कार :  डॉ. आर. के. दुबे. गायक : सनोज सागर. 

 
भजन सुनने व देखने के लिए नीचे दिए गए यूट्यूब लिंक को दवाएं. 





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