* डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. *
ए. एंड. एम.मीडिया शक्ति. प्रस्तुति. सम्पादकीय : राधिका कृष्ण : आलेख : पृष्ठ : १ / ४. * कृष्ण भक्त संत तुकाराम: मराठी भक्ति काव्य की महान परंपरा के एक अद्वितीय स्तंभ. पृष्ठ : १ / १ / ११
भूमिका : संत तुकाराम भारतीय संत परंपरा में वह दीप हैं, जिनकी ज्योति आज भी करोड़ों भक्तों के हृदय को आलोकित करती है। मराठी भक्ति काव्य की महान परंपरा में वे एक ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने भक्ति को केवल एक धार्मिक आचरण न मानकर, उसे जीवन के हर पहलू से जोड़ दिया। उन्होंने समाज की पीड़ा को अपनी करुणा से समझा, और ईश्वर को केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हर पीड़ित प्राणी में देखा। तुकाराम जी की भक्ति विठोबा ( भगवान श्रीकृष्ण ) के प्रति थी, जो पंढरपुर के आराध्य माने जाते हैं। वे वारकरी संप्रदाय के अग्रणी संतों में थे, जिनके अभंगों में न केवल भक्तिपरक माधुर्य है, बल्कि सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध संघर्ष और परिवर्तन का उद्घोष भी है। उनकी वाणी केवल काव्य नहीं, जनचेतना का प्रवाह है। जीवन परिचय : संत तुकाराम का जन्म १६०८ ईस्वी में महाराष्ट्र के पुणे जिले के देहु नामक गाँव में एक कुशल, लेकिन साधारण किसान-व्यापारी परिवार में हुआ। उनके पूर्वजों ने धर्म और सेवा का मार्ग अपनाया था। बचपन से ही तुकाराम गंभीर और ईश्वरमय प्रवृत्ति के थे, किंतु जीवन की कठिन परिस्थितियों ने उन्हें समय से पहले परिपक्व बना दिया। उनकी पहली पत्नी और पुत्र का देहांत अकाल के कारण हो गया। इस अत्यंत दुखद घटना ने उन्हें संसार की नश्वरता का बोध कराया। उन्होंने सांसारिक मोह त्याग कर पंढरपुर के विठोबा की शरण ली और एक पहाड़ी पर जाकर गहन साधना की। वहां उन्होंने आत्मानुभूति प्राप्त की और अपनी अंतरात्मा की गहराइयों से जो वाणी प्रस्फुटित हुई, वही ' अभंग ' कहलाए। उनका दूसरा विवाह जीजाबाई से हुआ, जो उनके जीवन की कठोर परीक्षा में भी उनकी प्रेरणा बनीं। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, समाज - सुधार और प्रेम से युक्त जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया। तुकाराम की भक्ति का स्वरूप : तुकाराम की भक्ति की विशेषता यह है कि उसमें निर्गुण और सगुण, दोनों तत्वों का समन्वय मिलता है। परंतु उनका प्रेम विठोबा के प्रति था, जो श्रीकृष्ण का ही एक साकार रूप माने जाते हैं। उन्होंने कृष्ण को कभी अपना सखा, कभी पिता, कभी प्रेमी, तो कभी माता के रूप में अनुभव किया। उनके लिए भक्ति केवल मंदिरों में गूंजता हुआ स्वर नहीं था, बल्कि वह एक जीने की शैली थी। उनका जीवन कीर्तन, भजन, नाम-स्मरण और समाज सेवा में समर्पित था। वे कहते थे ' नाम घेता फळ दिसे ' अर्थात ‘भगवान का नाम लेते ही उसका फल प्राप्त होता है।’ उन्होंने धर्म को शास्त्रों की कठिन जटिलताओं से मुक्त कर, जनसामान्य की सहज भाषा में प्रस्तुत किया। उनके अभंग मराठी में हैं, किंतु उनमें संपूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शन है। भक्ति और समाज-सुधार : संत तुकाराम का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भक्ति को सामाजिक चेतना से जोड़ा। वे सामाजिक अन्याय, जातिवाद, छुआछूत, और आडंबर के विरोधी थे। उन्होंने कहा: 'कर्मकांड नव्हे मोकळे आचरण, तयातच देवाचं स्थान ' धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि निर्मल आचरण में ही ईश्वर का वास है। उनकी दृष्टि में सच्चा भक्त वही है जो समाज के दुखियों के साथ खड़ा हो। उन्होंने धर्म के नाम पर हो रहे शोषण को ललकारा और एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें प्रेम, दया और समानता का राज हो। प्रमुख अभंगों की व्याख्या ' पांडुरंग हरि विठ्ठल, तु माझा आधार ' अर्थ : हे पांडुरंग! तू ही मेरा एकमात्र सहारा है। व्याख्या : यह अभंग ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण को दर्शाता है। तुकाराम सांसारिक दुखों और अस्थिरताओं से त्रस्त होकर कहते हैं कि अब जीवन की नाव केवल विठोबा के भरोसे चल सकती है। यह भाव भगवद्गीता के उस वचन के समान है ' मां एकं शरणं व्रज '।' जे का रंजले गांजले त्यासी म्हणे जो आपुले 'अर्थ : जो पीड़ित और शोषित हैं, उन्हें जो अपनाए, वही सच्चा भक्त है। व्याख्या : यह अभंग तुकाराम के मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रतीक है। वे कहते हैं कि ईश्वर की सच्ची सेवा दूसरों की पीड़ा में सहभागी होने से होती है। भक्ति केवल आरती और पूजा नहीं, बल्कि करुणा और सेवा का स्वरूप है। ' आतां विष्णु पाहावा, अंतरंगी देव ' अर्थ : अब मैं उस विष्णु को देखना चाहता हूँ, जो मेरे भीतर है। व्याख्या : यह आत्मबोध की चरम अवस्था है, जहाँ संत को बाहर के मंदिरों से अधिक भीतर की साधना दिखाई देती है। तुकाराम आत्मा में बसे ईश्वर की बात करते हैं, जो हर प्राणी में व्याप्त है। यह संत ज्ञानेश्वर और कबीर की परंपरा से जुड़ता है। माझे माहेर पंढरी, रखुमाईचा वाट पाहे अर्थ : मेरा मायका पंढरपुर है, और रुक्मिणी मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं। व्याख्या : यह अभंग भक्ति की मधुरता और आत्मीयता को प्रकट करता है। तुकाराम पंढरपुर को अपना घर मानते हैं और अपने आराध्य को अपना आत्मीय। यह रचना संत रैदास और मीरा की प्रियता भावना से भी साम्य रखती है। तुकाराम का प्रभाव और उत्तराधिकारी : संत तुकाराम के अभंगों ने महाराष्ट्र में भक्ति की नई धारा बहाई। उनके कीर्तन ग्राम्य जीवन का अभिन्न अंग बन गए। छत्रपति शिवाजी ने भी उनके विचारों को सराहा और उनका सम्मान किया। महात्मा गांधी ने तुकाराम को ' ग्राम्य संत ' कहा और उनके अभंगों को भारत के पुनर्जागरण का आधार माना। वारकरी संप्रदाय के लाखों अनुयायी आज भी वारी यात्रा के रूप में हर वर्ष पंढरपुर की ओर चलते हैं, और तुकाराम बीज के अवसर पर उनकी स्मृति में कीर्तन और भजन करते हैं। उपसंहार : संत तुकाराम केवल एक भक्त नहीं थे – वे एक चेतन क्रांति थे। उन्होंने यह सिद्ध किया कि भक्ति जीवन को केवल ईश्वर के ध्यान तक सीमित नहीं रखती, बल्कि वह समाज को बदलने की शक्ति बन सकती है। उनके अभंगों में वह शक्ति है जो हृदय को द्रवित करती है, और आत्मा को जाग्रत करती है। आज जब समाज फिर से विभाजनों और संघर्षों से जूझ रहा है, तब संत तुकाराम का यह संदेश प्रासंगिक है प्रेम ही ईश्वर है, और सेवा ही उसकी सबसे सच्ची पूजा। -------- कुम्भनदास: हरि : कृष्ण : भक्ति भाव का अनुपम रत्न : पृष्ठ : १ /१ / १० --------- डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. शक्ति : डॉ. श्वेता झा इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
कुम्भनदास, भक्ति काल की उस स्वर्णिम धारा के अनुपम रत्न थे, जिन्होंने अपनी सहज, स्वाभाविक और निष्कलुष भक्ति से हिंदी साहित्य को अमूल्य संपदा प्रदान की। उनका जन्म लगभग १४६८ ईस्वी में ब्रजभूमि के निकट गोवर्धन पर्वत के समीप स्थित जमुनावतो नामक ग्राम में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि उनका परिवेश अत्यंत सरल, ग्रामीण और भक्ति भाव से ओतप्रोत था। प्रारंभिक जीवन और भक्ति की ओर रुझान : कुम्भनदास का बचपन अत्यंत सरल वातावरण में बीता। सांसारिक विषयों में उनकी रुचि न्यून थी; उनका चित्त सदा भगवत भक्ति में रमा रहता। खेतों में काम करते समय भी वे कृष्ण के मधुर गुणों और लीलाओं का गान करते रहते। उनके जीवन का मूल स्वभाव सहजता और भक्ति में ही रचा-बसा था। वल्लभाचार्य से भेंट और पुष्टि मार्ग में दीक्षा : कुम्भनदास के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वे महान संत वल्लभाचार्य के संपर्क में आए। वल्लभाचार्य ने उन्हें पुष्टि मार्ग की दीक्षा दी — यह मार्ग भगवान कृष्ण की अनुकंपा और कृपा पर आधारित भक्ति का पथ है। कुम्भनदास ने इस मार्ग को अपने जीवन का आधार बनाया और कृष्ण प्रेम में पूर्णतः लीन हो गए। अष्टछाप में स्थान : वल्लभाचार्य ने अपने आठ प्रमुख शिष्यों को ' अष्टछाप ' नामक मंडल में संगठित किया, जिनमें कुम्भनदास भी प्रमुख स्थान पर थे। अष्टछाप के अन्य सदस्य थे : सूरदास, परमानंददास, कृष्णदास, गोविंदस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास : कुम्भनदास के पुत्र और नंददास। इन आठों ने अपनी रचनाओं द्वारा भक्ति भावना को जन-जन तक पहुँचाया। कुम्भनदास के काव्य और भक्ति भावना : कुम्भनदास के पदों में एक अनूठी सरलता और गहनता है। उनकी भाषा ब्रजभाषा की सहज शैली में है, जो आमजन के हृदय तक सीधे पहुँचती है। उनके पदों में कहीं भी पांडित्य का प्रदर्शन नहीं है, अपितु प्रेम, समर्पण और प्रभु की मधुर लीलाओं का सजीव चित्रण है। उनकी रचनाओं में कृष्ण की बाल लीलाएँ, गोपियों का प्रेम, ब्रजभूमि की महिमा, और आत्मिक विरक्ति के स्वर एक साथ गूंजते हैं। कुम्भनदास का स्वाभिमान और अकबर की घटना : कुम्भनदास का स्वाभिमान भी उतना ही प्रखर था जितनी उनकी भक्ति। एक प्रसंग प्रसिद्ध है कि मुगल सम्राट अकबर ने उनकी ख्याति सुनकर उन्हें फतेहपुर सीकरी बुलाया और पद सुनाने का आग्रह किया। परंतु कुम्भनदास ने बादशाही दरबार में जाने से स्पष्ट इनकार कर दिया। उन्होंने कहा: संतन को कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहियाँ घिस गईं, बिसरि गयो हरि नाम।।
इस पद में उनकी संसार से विरक्ति और भगवान कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण झलकता है। कुम्भनदास के पुत्र और भक्ति परंपरा : कुम्भनदास के पुत्र चतुर्भुजदास भी प्रसिद्ध कवि और अष्टछाप के सदस्य बने। इस प्रकार, पिता-पुत्र दोनों ने मिलकर कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित किया। कुम्भनदास के पदों में कृष्ण के बाल्य रूप, उनकी लीलाओं, ब्रजमंडल की महिमा और भगवत प्रेम का अत्यंत मधुर चित्रण मिलता है। कुम्भनदास जी के प्रसिद्ध पदों का सारांश पद देखि री हरि के अद्भुत ढंग। जमुना के जल कमल सेवत हैं, रवि सेवत हैं तरंग।। पवन पंखा करत डोलत हैं, पिक करत मधुर गान। शेष सहस मुख गावत गुननिधि, करत विविध बिधि ध्यान।। भावार्थ : इस पद में कृष्ण की अद्भुत लीलाओं का वर्णन है। यमुना का जल उनके कमल रूपी चरणों की सेवा कर रहा है, सूर्य की किरणें लहरों के रूप में उनकी सेवा कर रही हैं। हवा पंखे की तरह डोल रही है, कोयल मधुर गान कर रही है और हजारों मुख वाले शेषनाग गुणों के सागर कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं।
पद हरि तेरे नाम अनेक अनंता। कहि न सकै कोउ तेरा भेद, तू सबही में भगवंता।। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुर नर मुनि, सब तेरे गुन गांता। कुम्भनदास लाल गिरधर बिनु, और नहीं कोउ त्राता।।
भावार्थ : कुम्भनदास कहते हैं कि हे हरि, तुम्हारे अनगिनत नाम हैं और तुम अनंत हो। कोई भी तुम्हारे रहस्य को नहीं जान सकता, तुम सब में व्याप्त हो। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवता, मनुष्य और मुनि सभी तुम्हारे गुणों का गान करते हैं। कुम्भनदास कहते हैं कि गिरिधर लाल (कृष्ण) के बिना उनका कोई और रक्षक नहीं है।
पद आजु मैं देख्यो नंदकुमार। अद्भुत रूप अनूपम छवि, कोटिक मदन वारि डार।। मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, पीत वसन कटि सार। कुम्भनदास प्रभु गिरधर नागर, त्रिभुवन के आधार।।
भावार्थ : कुम्भनदास कहते हैं कि आज उन्होंने नंद के पुत्र (कृष्ण) को देखा। उनका रूप अद्भुत और अनुपम है, जिसकी सुंदरता करोड़ों कामदेवों को भी लज्जित कर दे। उनके सिर पर मोर का मुकुट है, कानों में मछली के आकार के कुंडल हैं और कमर में पीला वस्त्र बंधा है। कुम्भनदास कहते हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर तीनों लोकों के आधार हैं।
पद ब्रजमंडल महिमा गाई न जाई। जहाँ खेलत नित नंदकुमार, चरत गाई।। यमुना पुलिन कुंज निकुंज बन, शोभा अधिकाई। कुम्भनदास प्रभु कृपा करि भेटो, यह मन ललचाई।।
भावार्थ : इस पद में ब्रजमंडल की महिमा का वर्णन है। कुम्भनदास कहते हैं कि ब्रजमंडल की महिमा गाई नहीं जा सकती, जहाँ नंदकुमार (कृष्ण) नित्य खेलते हैं और गायें चराते हैं। यमुना के किनारे, कुंज और वन की शोभा बहुत अधिक है। कुम्भनदास प्रार्थना करते हैं कि प्रभु कृपा करके उन्हें ब्रजमंडल में दर्शन दें, क्योंकि उनका मन इसके लिए ललचा रहा है।
पद मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पै आवै।। कमल नैन को छाड़ि महातम, और देव को ध्यावै। सूरदास प्रभु अगम अगोचर, तत छिन छिन दरसावै।।
भावार्थ : कुम्भनदास कहते हैं कि उनका मन कहीं और सुख नहीं पाता। यह उसी प्रकार है जैसे जहाज का पक्षी उड़कर फिर जहाज पर ही लौट आता है। वे कमल नयन वाले कृष्ण की महिमा छोड़कर किसी और देवता का ध्यान क्यों करें? सूरदास कहते हैं कि प्रभु अगम और अगोचर हैं, लेकिन वे हर क्षण अपने भक्तों को दर्शन देते हैं।
पद कब देखौं ब्रज के बन बाग। जहाँ विहरत नित्य किशोर, सहित सखा अनुराग।। कदंब तरु की छाँह मनोहर, जमुना तट रमणीय। कुम्भनदास प्रभु कब रे मिलिहैं, यह अभिलाषा घनी।।
भावार्थ : कुम्भनदास ब्रज के वन और बागों को देखने की इच्छा व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि वे कब देखेंगे जहाँ किशोर कृष्ण अपने प्रिय सखाओं के साथ प्रेमपूर्वक विहार करते हैं। कदंब के वृक्षों की मनोहर छाया और यमुना का रमणीय तट उन्हें कब देखने को मिलेगा? कुम्भनदास कहते हैं कि प्रभु कब मिलेंगे, उनकी यह अभिलाषा बहुत अधिक है।
पद गोपाल तेरे रूप लुभाने। नयन विशाल रसाल अधर, मंद मंद मुस्काने।। कुटिल अलक सोहत मुख ऊपर, कुंडल झलकन काने। कुम्भनदास बलिहारी तेरी, मधुर मधुर बतराने।।
भावार्थ : कुम्भनदास भगवान कृष्ण के सुंदर रूप पर मोहित हैं। वे कहते हैं कि हे गोपाल, तुम्हारे रूप मन को लुभाने वाले हैं। तुम्हारे विशाल नेत्र, रसीले होंठ और मंद-मंद मुस्कान बहुत सुंदर हैं। घुंघराले बाल तुम्हारे मुख पर शोभा दे रहे हैं और कानों में कुंडल चमक रहे हैं। कुम्भनदास कहते हैं कि वे तुम्हारी मधुर-मधुर बातों पर बलिहारी जाते हैं। पद हरि बिनु कछु न सुहाय। जैसे रसना बिना स्वादु नहीं, तैसे यह मन जाय।। तन धन जोबन राज पाट सब, हरि बिनु दुखदाय। कुम्भनदास प्रभु तुम बिन कैसे, जिएं जाय।।
भावार्थ : कुम्भनदास कहते हैं कि हरि (कृष्ण) के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जैसे जीभ के बिना स्वाद नहीं आता, वैसे ही यह मन व्याकुल रहता है। शरीर, धन, यौवन और राजपाट सब हरि के बिना दुख देने वाले हैं। कुम्भनदास पूछते हैं कि हे प्रभु, तुम्हारे बिना कैसे जिया जा सकता है? कुम्भनदास की भक्ति की विरासत : कुम्भनदास ने अपने पदों द्वारा भक्ति की उस परंपरा को मजबूत किया, जिसमें प्रेम, सरलता और स्वाभिमान की त्रिवेणी बहती है। उनकी रचनाएँ आज भी कृष्ण भक्तों के लिए मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत हैं। उनकी भक्ति हमें सिखाती है कि संसार के प्रलोभनों से विमुक्त होकर, केवल प्रभु प्रेम में जीवन को समर्पित करना ही सच्चा सुख है।
---------- कृष्ण भक्त चैतन्य महाप्रभु : भक्ति की मधुर धारा के प्रवर्तक पृष्ठ : १ /१ / १० . --------- डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
चैतन्य महाप्रभु :
चैतन्य महाप्रभु : १४८६ - १५३४ ई. भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में भक्ति आंदोलन के सबसे महान प्रवर्तकों में से एक माने जाते हैं। वे श्रीकृष्ण के संयुक्त अवतार राधा और कृष्ण दोनों के रूप में पूजित हैं। उन्होंने ‘ नाम-संकीर्तन ’ भगवान के नाम का सामूहिक गान के माध्यम से प्रेम, भक्ति और साधना के एक नए युग का प्रारंभ किया। उनकी शिक्षाएँ प्रेमयोग और वैष्णव भक्ति पर आधारित थीं, जो आज भी दुनिया भर में प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं। जन्म, बचपन और शिक्षा : चैतन्य महाप्रभु का जन्म फाल्गुन मास की पूर्णिमा १८ फरवरी १४८६ को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप : नादिया में हुआ। जन्म के समय से ही वे चमत्कारिक थे, और अपने स्वर्णिम वर्ण के कारण 'गौरांग' कहलाए। बाल्यकाल से ही वे अत्यंत बुद्धिमान और आकर्षक थे। अल्पायु में ही उन्होंने संस्कृत व्याकरण, वेदांत, तर्कशास्त्र और वेदों का गहन अध्ययन कर लिया था। विशेष रूप से नवद्वीप, जो उस समय तर्क और शास्त्रों के अध्ययन का प्रमुख केंद्र था, वहाँ ' निमाई पंडित ' के नाम से उनकी ख्याति फैल गई थी। कृष्णभक्ति में परिवर्तन : यद्यपि प्रारंभिक जीवन में वे शास्त्रीय शिक्षा और वाद-विवाद में रमे रहे, परन्तु दक्षिण भारत की तीर्थयात्रा के बाद उनका हृदय पूर्णतः भक्ति की ओर मुड़ गया। श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम इतना गहरा हो गया कि वे नित्य भावविभोर होकर रोते, गाते, नृत्य करते और भगवान के नाम का संकीर्तन करते। उनके जीवन में अद्वैताचार्य, नित्यानंद प्रभु, श्रीवास ठाकुर, हरिदास ठाकुर, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी जैसे महान भक्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। संन्यास ग्रहण और प्रचार कार्य : २४ वर्ष की आयु में चैतन्य महाप्रभु ने संसार का त्याग कर संन्यास लिया। उन्होंने ‘केशव भारती’ से संन्यास दीक्षा प्राप्त की और अपना नया संन्यासी नाम ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ रखा। संन्यास के बाद वे नीलाचल : पुरी में बस गए, जहाँ उन्होंने जगन्नाथ जी के चरणों में अपना जीवन अर्पित कर दिया। इसके उपरांत उन्होंने दक्षिण भारत, ब्रजमंडल और द्वारका की विस्तृत यात्राएँ कीं। इन यात्राओं में उन्होंने हजारों लोगों को प्रेमभक्ति में दीक्षित किया। पुरी में उनके प्रमुख भक्तों में राजा प्रतापरुद्र, सर्वभौम भट्टाचार्य और अन्य कई विद्वान एवं राजपुरुष सम्मिलित थे। चैतन्य महाप्रभु का दर्शन : ' अचिन्त्य भेदाभेद ' चैतन्य महाप्रभु ने ' अचिन्त्य भेदाभेद ' सिद्धांत प्रतिपादित किया। उनके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा ( श्रीकृष्ण ) के बीच न तो पूर्ण एकता है और न ही पूर्ण भिन्नता। वे दोनों एक साथ एक भी हैं और भिन्न भी, और यह रहस्य "अचिन्त्य" अर्थात् बुद्धि से परे है। उन्होंने यह भी कहा कि केवल प्रेम, विशेषतः निष्काम, शुद्ध प्रेम, भगवान की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है। महाप्रभु की शिक्षाएँ १. नाम-संकीर्तन — हरे कृष्ण महामंत्र का उच्चारण ही मुक्ति का साधन है। २. विनम्रता और सहिष्णुता — स्वयं को घास से भी नीचा मानना चाहिए। ३. अहंकार का परित्याग — भक्ति में झूठे गौरव का कोई स्थान नहीं। ४. सर्वधर्म समभाव — सभी जीव भगवान के अंश हैं; इसलिए प्रत्येक के प्रति करुणा। ५ .कृष्णप्रेम की सर्वोच्चता — केवल ज्ञान या तप से नहीं, प्रेम से भगवान को पाया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु द्वारा रचित ' शिक्षाष्टक ' शिक्षा + अष्टक = आठ श्लोकों का संग्रह उनके भक्ति और साधना के गहनतम विचारों का सार है। मूल श्लोक: चेतो-दर्पण-मार्जनं भव-महा-दावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः-कैरिक-चन्द्रिका-वितरणं विद्या-वधू-जीवनम्। आनन्दाम्बुधि-वर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म-स्नपनं परं विजयते श्री-कृष्ण-सङ्कीर्तनम्॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन मन के दर्पण को स्वच्छ करता है, जन्म-मरण के महान जंगल-अग्नि को बुझाता है, परम कल्याण-चन्द्रिका का वितरण करता है, ज्ञानरूपी वधू (विवाहिता) का जीवन है, आनंद के समुद्र को बढ़ाता है, प्रत्येक चरण पर पूर्ण अमृत का स्वाद कराता है और समस्त आत्मा का स्नान कराता है। श्रीकृष्ण-संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है! भावार्थ: नाम-संकीर्तन से चित्त शुद्ध होता है, संसार के दुखों का नाश होता है और आत्मा परम सुख का अनुभव करती है। मूल श्लोक: नम्नाम् अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि दुर्दैवम् ईदृशम् इह जनिनानुरागः॥
अनुवाद: हे भगवान! आपने अपने नामों में अपनी समस्त शक्तियाँ रख दी हैं। स्मरण में भी कोई समय-नियम नहीं है। इतनी कृपा होते हुए भी मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे इन नामों में प्रेम नहीं है। भावार्थ: भगवान ने सहज साधना नाम-स्मरण का मार्ग दिया है, फिर भी जीव अपने दुर्भाग्य से उसमें अनुराग नहीं कर पाता। मूल श्लोक: त्रिणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः॥
अनुवाद:घास से भी अधिक विनम्र होकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील बनकर, स्वयं सम्मान की इच्छा न रखते हुए दूसरों को सम्मान देते हुए, हर समय हरिनाम का कीर्तन करना चाहिए। भावार्थ: सच्चा भजन तभी संभव है जब साधक में अत्यंत विनम्रता, सहनशीलता और निरहंकारिता हो। मूल श्लोक: न धनं न जनं न सुन्दरिं कवितां वा जगद् ईश कामये मम जन्मनि जन्मनि ईश्वरे भवताद् भक्तिर् अहैतुकी त्वयि॥
अनुवाद:हे जगत के ईश्वर! न मुझे धन चाहिए, न अनुयायी चाहिए, न सुंदर स्त्रियाँ चाहिए, न ही काव्य-कला। मेरी तो बस यही प्रार्थना है कि जन्म-जन्मांतर में मुझे आपके प्रति निष्काम भक्ति प्राप्त हो। भावार्थ:सच्ची भक्ति सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होती है, केवल भगवान की सेवा ही उसका लक्ष्य होती है। मूल श्लोक: अयि नन्दतनुज! किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ कृपया तव पादपङ्कज-स्थित धूली-सदृशं विचिन्तय॥
अनुवाद:हे नंदनंदन! मैं आपका एक सेवक हूँ, किंतु इस भव-सागर में पतित हो गया हूँ। कृपा करके मुझे अपने चरण-कमलों की धूल समान स्थान दें। भावार्थ:साधक भगवान से करुणा की याचना करता है कि उसे चरण-सेवा का अधिकार मिले।
मूल श्लोक: नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गीरेः पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥
अनुवाद: हे प्रभु! आपके नाम का उच्चारण करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुधारा बहेगी, कंठ गदगद हो जाएगा और शरीर रोमांच से भर जाएगा? भावार्थ: सच्चे प्रेम-भजन में शरीर, वाणी और मन स्वतः भगवान की प्रेममयी अनुभूति में डूब जाते हैं। मूल श्लोक: युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द-विरहेण मे॥
अनुवाद: प्रभु के वियोग में एक क्षण युग के समान प्रतीत होता है, नेत्रों से निरंतर वर्षा होती है, और सारा संसार शून्य लगता है। भावार्थ:भगवत-वियोग में साधक की स्थिति अत्यंत व्याकुल और विरह से व्यथित हो जाती है। मूल श्लोक: आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मां अदर्शनान् मर्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्-प्राणनाथस् तु स एव नापरः॥
अनुवाद:भगवान चाहे तो मुझे आलिंगन करें या अपने चरणों से रौंदें, या फिर मुझसे दूर होकर मेरे हृदय को तोड़ दें — वे जैसे भी व्यवहार करें, वे ही मेरे जीवन-स्वामी रहेंगे, और कोई नहीं। भावार्थ:यह अखंड, अनन्य प्रेम है – जिसमें भगवान का कोई भी व्यवहार स्वीकार्य है, केवल उनका स्वामित्व ही सबसे प्रिय है। चैतन्य महाप्रभु का परिनिर्वाण : चैतन्य महाप्रभु के जीवन का अंत भी रहस्य से आवृत है। १४ जून १५३४ ईस्वी के लगभग कुछ मान्यताओं के अनुसार १५३३ ईस्वी में, जगन्नाथ पुरी में, वे जगन्नाथ जी के दर्शन करते हुए और हरिनाम संकीर्तन में लीन होकर अपने दिव्य धाम को प्रस्थान कर गए। कई भक्तों की मान्यता है कि उन्होंने महाप्रभु को आखिरी बार श्री टोटा गोपीनाथ मंदिर में गोपीनाथजी की मूर्ति में लीन होते देखा। कुछ परंपराएं कहती हैं कि वे समुद्र में चले गए और लहरों में विलीन हो गए। उनका परिनिर्वाण दिवस फाल्गुन पूर्णिमा (होली के दिन) के आसपास ही माना जाता है, जो उनके जन्मदिन से भी जुड़ा हुआ है — इसीलिए चैतन्य महाप्रभु का जन्मोत्सव और परिनिर्वाण एक गहरे आध्यात्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। उनकी विरासत : चैतन्य महाप्रभु का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। 20वीं सदी में भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने इस्कॉन (इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कॉन्शियसनेस) की स्थापना कर उनके संकीर्तन आंदोलन को विश्वव्यापी बना दिया। आज अमेरिका, यूरोप, रूस, अफ्रीका, एशिया के सैकड़ों देशों में ‘हरे कृष्ण आंदोलन’ जीवंत है। मायापुर (नादिया) में महाप्रभु की जन्मभूमि पर विशाल मंदिर और तीर्थस्थल विकसित किया गया है, जिसे 'मायापुर चंद्रोदय मंदिर' कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने सिद्ध कर दिया कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए विद्वत्ता, धन या तपस्याओं की आवश्यकता नहीं, बल्कि एक सरल, निष्कलंक हृदय और प्रेम से भरा जीवन चाहिए। उनकी वाणी, उनका संकीर्तन, उनका प्रेम आज भी साधकों के हृदय में संजीवनी शक्ति भरता है। वे प्रेमयोग के अवतार थे और आज भी हर उस भक्त के अंतःकरण में जीवित हैं जो ‘हरे कृष्ण’ महामंत्र का भावपूर्ण उच्चारण करता है।
स्तंभ संपादन : शक्ति. नमिता सिंह. रानी खेत पृष्ठ सज्जा : ---------- कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य: एक दिव्य जीवन, शाश्वत दर्शन और भक्ति मार्ग के प्रणेता : पृष्ठ : १ /१ / ९ . --------- सोलहवीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन के आकाश में देदीप्यमान नक्षत्रों में से एक थे कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य। वे न केवल एक महान दार्शनिक और प्रकांड विद्वान थे, बल्कि भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त और पुष्टि संप्रदाय के संस्थापक भी थे। उनका जीवन त्याग, तपस्या, अद्वितीय ज्ञान और भगवान कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम का अद्भुत संगम था। वल्लभाचार्य जी ने अपने शुद्धाद्वैत वेदांत दर्शन और पुष्टि मार्ग के माध्यम से भक्ति की एक नई धारा प्रवाहित की, जिसने न केवल तत्कालीन धार्मिक परिदृश्य को प्रभावित किया बल्कि आज भी लाखों भक्तों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर रही है। उनका योगदान भारतीय दर्शन, धर्म और संस्कृति के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। जन्म एवं प्रारंभिक जीवन : दैवीय संकेतों से परिपूर्ण वल्लभाचार्य जी का जन्म विक्रम संवत १५३५ या १४७९ ईस्वी में दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के कांकड़वाड़ नामक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता, श्री लक्ष्मण भट्ट तैलंग, एक प्रतिष्ठित तैलिक ब्राह्मण थे, जो विद्वता और धार्मिकता के लिए जाने जाते थे। उनकी माता, श्रीमती इलम्मागारु, भी एक विदुषी और धर्मपरायण महिला थीं। वल्लभाचार्य जी का जन्म एक असाधारण घटना के रूप में वर्णित है। सात महीने के गर्भ के पश्चात, उनकी माता ने एक मृत बालक को जन्म दिया। शोक संतप्त माता-पिता ने शिशु को एक वृक्ष के नीचे रखकर विलाप करना प्रारंभ कर दिया। तभी एक दैवीय वाणी सुनाई दी कि बालक जीवित होगा। जब वे वापस लौटे, तो उन्होंने शिशु को जीवित और मुस्कुराते हुए पाया। इस चमत्कारिक घटना ने उनके जन्म को एक दिव्य संकेत के रूप में स्थापित किया और उनके भावी जीवन की महानता की ओर इशारा किया। बचपन से ही वल्लभाचार्य जी में असाधारण प्रतिभा के लक्षण दिखाई देने लगे थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी और उन्होंने अल्पायु में ही वेद, उपनिषद, षड्दर्शन, श्रीमद्भागवत और अन्य प्रमुख शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। उन्होंने व्याकरण, ज्योतिष, संगीत और अन्य कलाओं में भी दक्षता प्राप्त की। उनकी तीव्र बुद्धि और ज्ञान की प्यास ने उन्हें अपने समय के महानतम विद्वानों में से एक बना दिया। शिक्षा एवं ज्ञानार्जन: भारत भ्रमण और शास्त्रार्थ वल्लभाचार्य जी ने ज्ञान की खोज में पूरे भारतवर्ष की व्यापक यात्राएँ कीं। उन्होंने विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक केंद्रों का दौरा किया और वहां के प्रकांड विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किए। उनकी यात्राओं का उद्देश्य न केवल विभिन्न तीर्थस्थलों का दर्शन करना था, बल्कि विभिन्न दार्शनिक मतों का अध्ययन और खंडन करना भी था। उन्होंने काशी (बनारस), वृंदावन, प्रयाग, मथुरा, बद्रीनाथ, पुरी, द्वारका, नासिक और दक्षिण भारत के अनेक महत्वपूर्ण नगरों का भ्रमण किया। काशी में उनका विशेष सम्मान हुआ, जहाँ उन्होंने अनेक प्रतिष्ठित विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। उनकी तार्किक क्षमता, शास्त्रों का गहन ज्ञान और वाक्पटुता ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। इन शास्त्रार्थों में उन्होंने अपनी अद्वितीय विद्वता का परिचय दिया और विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों के सिद्धांतों का खंडन करते हुए अपने विचारों की श्रेष्ठता स्थापित की। उनकी इन विजयों के कारण उन्हें 'बालक वल्लभ' और 'दिग्विजयी' जैसी उपाधियाँ मिलीं, जो उनकी असाधारण प्रतिभा और ज्ञान का प्रतीक थीं। पुष्टि संप्रदाय की स्थापना: कृपा का अनुपम मार्ग अपनी विस्तृत यात्राओं और गहन चिंतन के परिणामस्वरूप, वल्लभाचार्य जी ने भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित एक नए दार्शनिक संप्रदाय की स्थापना की, जिसे पुष्टि संप्रदाय या शुद्धाद्वैत वेदांत के नाम से जाना जाता है। 'पुष्टि' शब्द का अर्थ है 'अनुग्रह' या 'कृपा'। इस संप्रदाय का मूल सिद्धांत यह है कि भगवान कृष्ण की कृपा ही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र और सर्वोच्च साधन है। जीव अपने कर्मों या ज्ञान के बल पर पूर्ण मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता; यह केवल भगवान के अनुग्रह से ही संभव है। वल्लभाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत पुराण को पुष्टि संप्रदाय का प्रमुख आधार ग्रंथ माना। उन्होंने इस पवित्र ग्रंथ की गहरी और भक्तिपूर्ण व्याख्या की और भगवान कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम, सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म के रूप में स्थापित किया। उनके अनुसार, भगवान कृष्ण ही सभी अवतारों के मूल हैं और उनकी लीलाएँ आनंद और प्रेम से परिपूर्ण हैं। पुष्टि मार्ग भक्तों को भगवान कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेमभाव रखने का उपदेश देता है, जिससे वे उनकी कृपा के पात्र बन सकें।
शुद्धाद्वैत वेदांत: एक विशिष्ट दार्शनिक प्रणाली वल्लभाचार्य जी का दार्शनिक मत शुद्धाद्वैत वेदांत के नाम से जाना जाता है। यह वेदांत दर्शन की एक विशिष्ट शाखा है जो ब्रह्म, जीव और जगत के संबंध को एक अद्वितीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। यह दर्शन शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत और रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत वेदांत से भिन्न है। शुद्धाद्वैत का अर्थ हैशुद्ध अद्वैत' या ' भेद रहित एकता '। इस दर्शन के मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं:- ब्रह्म ही सत्य: शुद्धाद्वैत वेदांत के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है। वह सच्चिदानंद स्वरूप (सत् - अस्तित्व, चित् - चेतना, आनंद - परम सुख) है। वल्लभाचार्य जी ब्रह्म को सगुण और साकार मानते हैं, जो भगवान कृष्ण के रूप में अपनी दिव्य लीलाएँ करते हैं। उनका ब्रह्म निर्गुण और निराकार नहीं है, बल्कि सभी दिव्य गुणों और शक्तियों का भंडार है। जगत ब्रह्म का वास्तविक परिणाम : अद्वैत वेदांत में जगत को माया का विवर्त (भ्रम) माना जाता है, जबकि शुद्धाद्वैत वेदांत में जगत को ब्रह्म का वास्तविक परिणाम माना जाता है। ब्रह्म अपनी सत्य शक्ति के द्वारा जगत के रूप में प्रकट होता है। यह परिवर्तन वास्तविक है, आभासी नहीं। इसलिए, जगत भी सत्य है और भगवान का ही स्वरूप है। अविकृत परिणामवाद : वल्लभाचार्य जी का सिद्धांत 'अविकृत परिणामवाद' कहलाता है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म बिना किसी आंतरिक परिवर्तन या विकार के जगत के रूप में परिणत होता है। जिस प्रकार अग्नि से निकलने वाली चिंगारियाँ अग्नि का ही अंश होती हैं, उसी प्रकार जीव और जगत ब्रह्म का ही अंश हैं, लेकिन ब्रह्म अपने मूल स्वरूप में अपरिवर्तित रहता है। जीव ब्रह्म का अंश : शुद्धाद्वैत वेदांत में जीव को ब्रह्म का अंश माना जाता है। जीव अणु स्वरूप है और ब्रह्म विभु (सर्वव्यापी)। जीवों में भक्ति करने और भगवान की सेवा करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अज्ञान के कारण जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और सांसारिक बंधनों में जकड़ जाता है। भक्ति के द्वारा जीव पुनः अपने आनंदमय स्वरूप को प्राप्त कर सकता है और भगवान के साथ शाश्वत संबंध स्थापित कर सकता है। माया ब्रह्म की शक्ति : शुद्धाद्वैत वेदांत में माया को ब्रह्म की एक शक्ति माना जाता है, जो जगत की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। यह अद्वैत वेदांत की तरह भ्रम या अज्ञान का कारण नहीं है। भक्ति मार्ग: प्रेम और समर्पण का पथ : पुष्टि संप्रदाय में भक्ति का सर्वोच्च स्थान है। वल्लभाचार्य जी ने भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सबसे सरल, सुगम और प्रभावी मार्ग बताया है। उनकी भक्ति प्रेम और पूर्ण समर्पण पर आधारित है। भक्त भगवान कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेमभाव रखता है और उनकी सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देता है। इस प्रेम और समर्पण के कारण भगवान की कृपा ( पुष्टि ) प्राप्त होती है, जो जीव को सांसारिक बंधनों से मुक्त करती है और उसे भगवान के साथ शाश्वत आनंद की प्राप्ति कराती है। पुष्टि भक्ति में विभिन्न प्रकार के भावों का समावेश होता है, जैसे सख्य भाव ( मित्रता ), वात्सल्य भाव ( माता-पिता का प्रेम ), और माधुर्य भाव ( प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम )। इन भावों के माध्यम से भक्त भगवान के साथ एक गहरा और व्यक्तिगत संबंध स्थापित करता है। वल्लभाचार्य जी ने रागानुगा भक्ति (प्रेम पर आधारित भक्ति ) पर विशेष बल दिया, जिसमें भक्त किसी विशेष भाव से भगवान के प्रति आकर्षित होकर उनकी सेवा करता है। सेवा का स्वरूप: प्रेममयी आराधना पुष्टि संप्रदाय में सेवा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। सेवा केवल कर्मकांड या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है। इसमें तन ( शारीरिक सेवा ), मन ( मानसिक चिंतन और ध्यान ), और धन ( अपनी क्षमतानुसार योगदान ) से भगवान की सेवा की जाती है। पुष्टि संप्रदाय में भगवान कृष्ण की अष्टयाम सेवा ( दिन के आठ पहरों की सेवा ) का विस्तृत विधान है। इस सेवा में भगवान को अलग-अलग समय पर विभिन्न प्रकार के भोग ( भोजन ), राग ( संगीत ), श्रृंगार ( वस्त्र और आभूषण ) और उत्सव समर्पित किए जाते हैं। यह सेवा भक्तों को भगवान के साथ निरंतर जुड़े रहने और उनके प्रेम का अनुभव करने का अवसर प्रदान करती है। मंदिरों में भगवान की सेवा अत्यंत प्रेम और समर्पण भाव से की जाती है, और इसे भगवान के साथ एक जीवंत संबंध के रूप में देखा जाता है। वल्लभाचार्य जी का साहित्यिक योगदान: ज्ञान और भक्ति का संगम : वल्लभाचार्य जी एक महान विद्वान और लेखक थे। उनके द्वारा रचित ग्रंथ न केवल दार्शनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी उच्च कोटि के हैं। उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और प्रवाहमयी है, और उनके विचारों में गहरी मौलिकता और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि है। वल्लभाचार्य जी प्रमुख ग्रंथ - ब्रह्मसूत्र अणुभाष्य : यह ब्रह्मसूत्र पर उनका अपूर्ण भाष्य है, जिसमें उन्होंने अपने शुद्धाद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को विस्तार से प्रस्तुत किया है। यह ग्रंथ उनके दार्शनिक विचारों का मूल आधार है। श्रीमद्भागवत टीका ( सुबोधिनी ): यह श्रीमद्भागवत पुराण पर उनकी विस्तृत और महत्वपूर्ण टीका है। यह ग्रंथ पुष्टि भक्ति के सिद्धांतों, भगवान कृष्ण की लीलाओं और उनके स्वरूप की गहरी व्याख्या प्रस्तुत करता है। यह पुष्टि संप्रदाय का एक प्रमुख धर्मग्रंथ है। तत्वार्थदीप निबंध: यह ग्रंथ उनके दार्शनिक सिद्धांतों का सार प्रस्तुत करता है। इसके तीन भाग हैं - शास्त्रार्थ प्रकरण, सर्व निर्णय प्रकरण और भगवतार्थ प्रकरण। यह शुद्धाद्वैत वेदांत के मूल तत्वों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण कृति है। षोडश ग्रंथ: ये सोलह लघु ग्रंथ हैं, जिनमें भक्ति, सेवा, ज्ञान, सदाचार और भगवान कृष्ण की महिमा से संबंधित महत्वपूर्ण उपदेश दिए गए हैं। ये ग्रंथ पुष्टि मार्ग के अनुयायियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और उनके दैनिक जीवन में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। इनमें 'यमुनाष्टक', 'सिद्धांत रहस्य', 'नवरत्न स्तोत्र' आदि प्रमुख हैं। अन्य रचनाएँ : उन्होंने कई अन्य स्तोत्र, पत्र और टिप्पणियाँ भी लिखीं, जो उनके भक्तिमय हृदय और गहन विद्वत्ता को दर्शाती हैं। शिष्य परंपरा और अष्टछाप: भक्ति काव्य का स्वर्णिम युग वल्लभाचार्य जी के अनेक शिष्य हुए, जिन्होंने उनके विचारों को आगे बढ़ाया और पुष्टि संप्रदाय की भक्ति परंपरा को सुदृढ़ किया। उनके सबसे प्रमुख शिष्य सूरदास थे, जो हिंदी साहित्य के महान कवि और कृष्ण भक्त थे। सूरदास की भक्तिमय रचनाएँ आज भी करोड़ों लोगों को प्रेरित करती हैं। वल्लभाचार्य जी के पुत्र, श्री विट्ठलनाथ जी ने पुष्टि संप्रदाय को संगठित करने और उसकी भक्ति परंपरा को एक नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने आठ कवियों के एक समूह, अष्टछाप, का गठन किया। इन कवियों में सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, गोविंदस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास शामिल थे। इन कवियों ने अपनी मधुर और भक्तिपूर्ण रचनाओं से भगवान कृष्ण की लीलाओं, उनके सौंदर्य और उनके प्रति प्रेम का गान किया। अष्टछाप के कवियों ने ब्रजभाषा में अपनी रचनाएँ कीं, जिसने हिंदी साहित्य के भक्ति काल को एक स्वर्णिम युग प्रदान किया। उनके पदों में भगवान कृष्ण के बाल रूप, युवावस्था की लीलाएँ और उनके प्रति भक्तों का अनन्य प्रेम अत्यंत मार्मिक और हृदयस्पर्शी ढंग से व्यक्त किया गया है। सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव: भक्ति का जन आंदोलन वल्लभाचार्य जी और उनके पुष्टि संप्रदाय का भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने भक्ति के माध्यम से लोगों को आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाया और समाज में प्रेम, करुणा, सेवा और समता के मूल्यों को बढ़ावा दिया। उनके द्वारा स्थापित मंदिरों और सेवा पद्धतियों ने भारतीय धार्मिक परंपरा को एक नया आयाम दिया। पुष्टि संप्रदाय ने जाति और लिंग के भेदभाव को मिटाकर सभी को भगवान की भक्ति का समान अधिकार प्रदान किया। अष्टछाप के कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं से कृष्ण भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया। उनकी सरल और मधुर भाषा ने आम लोगों को भगवान कृष्ण के प्रति आकर्षित किया और भक्ति को एक लोकप्रिय जन आंदोलन बना दिया। उनके पदों का गायन आज भी मंदिरों और घरों में भक्तिभाव से किया जाता है। अंतिम समय और विरासत: एक शाश्वत प्रेरणा वल्लभाचार्य जी ने अपना अंतिम समय वाराणसी : काशी में बिताया। विक्रम संवत १५८७ ईस्वी १५३० में उन्होंने गंगा नदी में प्रवेश करके अपनी पार्थिव लीला समाप्त की। उनके देहत्याग के बाद भी उनके विचार और शिक्षाएँ उनके अनुयायियों के बीच जीवित रहीं और आज भी पुष्टि संप्रदाय एक जीवंत और प्रभावशाली धार्मिक परंपरा के रूप में विद्यमान है। उनके वंशज, जिन्हें गोस्वामी महाराज के रूप में जाना जाता है, आज भी इस संप्रदाय के आध्यात्मिक गुरु के रूप में सम्मानित हैं। वल्लभाचार्य जी एक असाधारण व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने अद्वितीय ज्ञान, अटूट भक्ति और गहन दार्शनिक चिंतन से भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को हमेशा के लिए समृद्ध किया। उनका जीवन भगवान कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम, अद्वितीय विद्वता और मानव कल्याण के प्रति समर्पण का एक प्रेरणादायक उदाहरण है। उनकी शिक्षाएँ आज भी लाखों लोगों को शांति, आनंद और आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर रही हैं। पुष्टि संप्रदाय भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और समर्पण के मार्ग पर चलने वाले भक्तों के लिए एक शाश्वत प्रकाश स्तंभ बना रहेगा। कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य : कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य जी का जीवन और दर्शन भारतीय भक्ति परंपरा का एक अमूल्य रत्न है। उन्होंने न केवल एक नए दार्शनिक संप्रदाय की स्थापना की, बल्कि भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और समर्पण के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का एक सरल और प्रभावी मार्ग भी दिखाया। उनका शुद्धाद्वैत वेदांत दर्शन ब्रह्म, जीव और जगत के संबंध की एक अनूठी और गहन व्याख्या प्रस्तुत करता है। अष्टछाप के कवियों के माध्यम से उन्होंने भक्ति काव्य को एक नई ऊँचाई प्रदान की। वल्लभाचार्य जी का योगदान भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा और उनकी शिक्षाएँ युगों-युगों तक भक्तों को प्रेरित करती रहेंगी। --------- तुलसीदास और कृष्ण की भक्ति परंपरा आलेख : पृष्ठ : १ /१ / ८ . ------------- *
हिंदी साहित्य के आकाश में तुलसीदास एक अद्वितीय नक्षत्र की भांति हैं। यद्यपि वे रामभक्ति शाखा के महान कवि माने जाते हैं और उनका प्रमुख ग्रंथ 'रामचरितमानस' रामकथा पर आधारित है, फिर भी उनके काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्ति भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। तुलसीदास का हृदय एक भक्त हृदय था, और राम या कृष्ण, वे दोनों ही उनके लिए एक ही ब्रह्म के अवतार थे। इसीलिए उनकी कई रचनाओं में श्रीकृष्ण का सौंदर्य, शील, और लीला वर्णन मिलता है। तुलसीदास और कृष्ण भक्ति का संबंध : तुलसीदास का मूल उपास्य आराध्य श्रीराम हैं, परंतु वे श्रीकृष्ण को श्रीराम के ही रूप में देखते हैं। तुलसीदास की भक्ति निर्गुण और सगुण के समन्वय की भूमि पर आधारित थी। उन्होंने सगुण भक्ति को प्रधानता दी, जिसमें ईश्वर को साकार रूप में आराध्य माना गया है। राम और कृष्ण, दोनों ही उनके लिए साकार सगुण ब्रह्म हैं। यद्यपि तुलसीदास ने वृंदावन में श्रीकृष्ण की लीला भूमि का दर्शन किया, पर वे वैष्णव भक्तों की उस धारा से जुड़े, जो राम को अपने इष्टदेव के रूप में मानती है। फिर भी तुलसीदास ने कई स्थलों पर श्रीकृष्ण की महिमा का गायन किया है। कृष्ण पर आधारित तुलसीदास की रचनाएं : विनय पत्रिका : यह तुलसीदास की अत्यंत मार्मिक और भावनात्मक रचना है जिसमें वे भगवान से अपनी करुण पुकार व्यक्त करते हैं। इस ग्रंथ में अनेक स्थलों पर श्रीकृष्ण की लीलाओं, बाल रूप, यशोदा के साथ उनके संबंध, गोपियों के साथ रास आदि का अत्यंत भावुक वर्णन मिलता है।
"देखि छवि गोपाल की, अति भई मोहि लाज। मनमोहन छबि मानसी, देखि सकल सब काज॥"
भावार्थ: जब मैंने श्रीकृष्ण की मनमोहक छवि देखी, तो मन लज्जा से भर गया। उस छवि ने मेरे चित्त के सभी कार्यों को शांत कर दिया। यह भक्त का भाव है, जब वह प्रभु के सौंदर्य में लीन हो जाता है। कवितावली : इस रचना में तुलसीदास ने विविध पदों के माध्यम से भगवान राम के साथ-साथ श्रीकृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन किया है। उन्होंने मथुरा, वृंदावन, गोकुल आदि का उल्लेख कर श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को रसमय शैली में प्रस्तुत किया है।
"नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की। हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की॥"
भावार्थ: नंद बाबा के घर आनंद हुआ है, श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है। यह पद जन्माष्टमी के उल्लास को दर्शाता है, जहाँ संपूर्ण ब्रज श्रीकृष्ण के जन्म पर उत्सव मना रहा है। इस प्रकार के पदों से तुलसीदास ने जन-जन में बालकृष्ण की लीलाओं के प्रति भक्ति भाव को जागृत किया।
दोहे और चौपाइयां : उनके रचनात्मक दोहों में श्रीकृष्ण के गुणों की प्रशंसा भी दिखाई देती है। यद्यपि ये रचनाएँ तुलसीदास के रामभक्ति प्रधान साहित्य का भाग हैं, पर श्रीकृष्ण को वे राम के अवतारी स्वरूप के रूप में मानते हुए पूजते हैं। तुलसीदास का कृष्ण के प्रति दृष्टिकोण : तुलसीदास के लिए राम और कृष्ण एक ही परब्रह्म के दो रूप हैं। एक बाल ब्रह्मचारी और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में, और दूसरा लीला पुरुषोत्तम, रास रचैया के रूप में। वे दोनों उनके लिए भगवद् तत्व के सगुण स्वरूप हैं। तुलसीदास ने श्रीकृष्ण को प्रेम, माधुर्य और सौंदर्य का प्रतीक माना है। एक स्थल पर तुलसीदास कहते हैं—
"राम सिया के प्रेम रस, सुरसरि में बहे। लील रसायन कृष्ण की, मानस में कहे॥"
तुलसीदास ने जहाँ राम की मर्यादा को महत्व दिया, वहीं कृष्ण की लीला और माधुर्य को भी उतना ही आदर प्रदान किया। तुलसीदास और कृष्ण की लीलाओं का सामाजिक प्रभाव तुलसीदास द्वारा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन केवल आध्यात्मिक नहीं, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। उनके पदों और काव्य ने जनमानस में कृष्ण के बालरूप और उनके प्रेममयी स्वरूप की गहरी छवि अंकित की। गाँव-गाँव में कृष्ण जन्माष्टमी और झूला महोत्सव पर तुलसीदास के पद गाए जाते हैं। तुलसीदास के कृष्ण भक्ति पर आधारित पद
"जसुमति मैया पूछे बार-बार, हरी, तू काहे न खेले गुअर-धूलि?"
भावार्थ : यशोदा माता श्रीकृष्ण से स्नेहपूर्वक पूछती हैं कि तू ग्वालों की तरह मिट्टी में क्यों नहीं खेलता? तुलसीदास बालकृष्ण की लीलाओं को चित्रित कर रहे हैं, जहाँ वात्सल्य रस मुखर होता है।
"देखी छवि गोपाल की, अति भई मोहि लाज। मनमोहन छबि मानसी, देखि सकल सब काज॥" भावार्थ : जब मैंने श्रीकृष्ण की मनमोहक छवि देखी, तो मन लज्जा से भर गया। उस छवि ने मेरे चित्त के सभी कार्यों को शांत कर दिया। यह भक्त का भाव है, जब वह प्रभु के सौंदर्य में लीन हो जाता है।
"गइया चरावन चले ग्वाल बालक, कन्हैया लाल भये आगे। पीछे-पीछे धावत मुरली, मन मोहे मधुर सुहागे॥"
भावार्थ: ग्वालबालों के संग श्रीकृष्ण गाय चराने निकले, उनके पीछे-पीछे मुरली की मधुर तान बही। यह पद बालकृष्ण की गोवर्धन और वृंदावन की लीलाओं का वर्णन करता है।
"नन्द के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की। हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की॥" भावार्थ: नंद बाबा के घर आनंद हुआ है, श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है। यह पद जन्माष्टमी के उल्लास को दर्शाता है, जहाँ संपूर्ण ब्रज श्रीकृष्ण के जन्म पर उत्सव मना रहा है।
" गोप ग्वाल सब संग लए, धेनु चरावत धेनु चराए। मधुर मुरली मन मोहन बाजे, देखत नंदलाल मन लुभाए॥"
भावार्थ: श्रीकृष्ण अपने ग्वाल मित्रों के साथ गायें चरा रहे हैं। उनकी बांसुरी की मधुर ध्वनि मन को मोहित करती है। यह पद बाल-लीलाओं में गहराई से डूबा है। "चलत चरन यशोदा रोके, कहत कन्हैया टारो। अंग-अंग रस भीने भयउ, मनमोहन सुखकारी॥"
भावार्थ: जब कन्हैया चलने लगते हैं, यशोदा उन्हें रोकने की चेष्टा करती हैं। उनका हर अंग प्रेम से भीगा हुआ है। यह पद वात्सल्य और बाल सौंदर्य का अद्वितीय चित्रण है। "रास रचत बन बिहरत श्रीकृष्ण, ग्वालिन संग सुहावन। चंद्रमा मधुर मुसकाय, मन मोहन बंसी धावन॥"
भावार्थ: श्रीकृष्ण रास रचते हैं, गोपियों के संग वन में रमते हैं। चाँदनी रात में बंसी की ध्वनि सबका मन हर लेती है। यह रास लीला का संगीतमय चित्र है। "बांधत यशोदा जू कन्हैया, हँसत हठीली बात। देखि रूप गोविंद को, तुलसी रह्यो अधीर प्रात॥"
भावार्थ: यशोदा श्रीकृष्ण को बाँधने का प्रयास करती हैं, परंतु कन्हैया हँसते हुए शरारत करते हैं। तुलसीदास इस लीलामय दृश्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
"भ्रमर बन्यो मन मोहन मोरे, नंदकिशोर लुभायो। चरण सरोज सुभग शोभा, हरि रस छंद छायो॥"
भावार्थ: श्रीकृष्ण मेरे हृदय के भ्रमर बन गए हैं, उनकी मधुरता ने मुझे लुभा लिया है। उनके चरण कमलों की छवि और उनकी मधुर लीलाएँ मन को रस में डुबो देती हैं।
"जमुना तीर बजावै बंसी, प्यारी प्यारी सुर आवै। गोपिन संग रचै रास लीला, अमृत रस छलकावै॥"
भावार्थ: यमुना किनारे श्रीकृष्ण बंसी बजा रहे हैं। उनकी सुर लहरियाँ प्यारी लगती हैं, और गोपियों के संग वे रास रचते हुए दिव्य आनंद की वर्षा करते हैं। यद्यपि तुलसीदास की प्रमुख पहचान रामभक्त कवि के रूप में है, परंतु उनका हृदय श्रीकृष्ण के लिए भी उतना ही रसमग्न था। उनकी रचनाओं में कृष्ण की लीलाओं की मधुर झलकियाँ मिलती हैं, जो यह प्रमाणित करती हैं कि तुलसीदास केवल रामभक्त नहीं, अपितु व्यापक रूप में वैष्णव भक्त थे, जिन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण को समान भाव से वंदित किया। उनकी भक्ति समन्वयात्मक थी—जहाँ राम मर्यादा हैं, वहाँ कृष्ण माधुर्य हैं—और दोनों ही उनके भक्तहृदय में समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। उनकी रचनाओं में कृष्ण के माधुर्य और लीलाओं का अत्यंत कोमल, भावनात्मक, और संगीतात्मक चित्रण हुआ है, जिससे भक्त रससिक्त हो उठते हैं। *
कृष्ण भक्त सूरदास जी : भक्ति रस के अमर गायक आलेख : पृष्ठ : १ /१ / ७ . डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा.
परिचय : सूरदास जी भक्ति काल के आकाश में देदीप्यमान नक्षत्रों में से एक हैं। वे सगुण भक्ति धारा के महान कवि और वल्लभाचार्य संप्रदाय के अनन्य उपासक थे। उन्होंने अपनी दिव्य वाणी से श्रीकृष्ण की बाल्य और युवावस्था की मनोहारी लीलाओं को अद्वितीय सौंदर्य के साथ चित्रित किया। सूरदास जी का काव्य भाव, भाषा, छंद और रस की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। उनकी रचनाएँ गहन आध्यात्मिक अनुभूति से परिपूर्ण हैं और उनमें भक्त और भगवान के मध्य मधुर संबंध का गहरा चित्रण मिलता है। जीवन परिचय : सूरदास जी का जन्म लगभग १४७८ ईस्वी में माना जाता है। उनके जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है; कुछ उन्हें जन्म से नेत्रहीन मानते हैं, जबकि अन्य का मानना है कि उन्होंने बाद में अपनी दृष्टि खो दी। उनका जन्मस्थान ‘ सीही गाँव ’ ( वर्तमान हरियाणा ) या ‘रुनकता’ ( आगरा के निकट ) माना जाता है। प्रारंभिक जीवन में वे एक भिक्षु के रूप में रहे, किंतु श्री वल्लभाचार्य के संपर्क में आने के पश्चात उन्होंने पुष्टिमार्ग स्वीकार किया और भक्ति की उच्च साधना में लीन हो गए। सूरदास जी ने अपना अधिकांश जीवन गोकुल, वृंदावन और गौघाट के पवित्र क्षेत्रों में व्यतीत किया। यहीं उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का मधुर गान किया और अपनी कविताओं के माध्यम से भक्ति रस की अमृत वर्षा की। सूरदास जी की प्रमुख रचनाएँ : सूरसागर: कृष्ण लीलाओं पर केंद्रित पदों का विशाल संग्रह। सूरसारावली: सृष्टि के विविध रूपों, तत्वों और भावों का विस्तृत वर्णन। साहित्य लहरी: काव्यशास्त्र, नायक-नायिका भेद, रस आदि पर आधारित पदों की रचना। सूरदास जी की काव्यगत विशेषताएँ : श्रीकृष्ण के विविध रूपों का सजीव चित्रण। उन्होंने बालकृष्ण की मनमोहक छवि, यशोदा के वात्सल्यपूर्ण लाडले, राधा के प्रियतम और गोपियों के चित्त चोर के रूप में श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों को अत्यंत कुशलता से चित्रित किया है। वात्सल्य, श्रृंगार एवं भक्ति रस की त्रिवेणी: उनके काव्य में वात्सल्य (माता-पिता का प्रेम), श्रृंगार (प्रेम और सौंदर्य) और भक्ति रस का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। ब्रजभाषा की माधुर्यता:उन्होंने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा के मधुर और सहज रूप का प्रयोग किया, जिससे उनके पद अत्यंत कर्णप्रिय और भावपूर्ण बन पड़े हैं। नेत्रहीन होकर भी अत्यंत चित्रात्मक वर्णन:यह आश्चर्यजनक है कि नेत्रहीन होने के बावजूद सूरदास जी ने प्रकृति और श्रीकृष्ण की लीलाओं का इतना जीवंत और चित्रात्मक वर्णन किया है। नारी भावों की गहन और करुण अभिव्यक्ति : उन्होंने राधा और गोपियों के हृदय की गहराई, उनके प्रेम, विरह और समर्पण के भावों को अत्यंत मार्मिकता से व्यक्त किया है।
प्रसिद्ध पद : प्रसिद्ध पद : मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो। मोसे कहत मोंहि कन्हैया, जसुमति को लाल न भायो।
भावार्थ : बालकृष्ण यशोदा से शिकायत करते हैं कि बलराम उन्हें चिढ़ाते हैं और कहते हैं कि वे यशोदा के असली पुत्र नहीं हैं। यह पद वात्सल्य रस और बाल मनोविज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है।
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।
भावार्थ : इस पद में भक्त का श्रीकृष्ण के प्रति गहरा प्रेम और समर्पण भाव व्यक्त होता है। गोपियाँ कहती हैं कि श्रीकृष्ण इतने सुंदर हैं कि उन्हें देखने वाला भी उनके रंग में रंग जाता है।
जसोदा हरि पालने झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै, गीत नवल गावत सुलभ सुलावै
भावार्थ : इस पद में माता यशोदा का अपने पुत्र श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य भाव उमड़ रहा है। वह उन्हें झूले में झुलाती हैं, प्यार करती हैं और लोरी गाकर सुलाने का प्रयास करती हैं।
मैयाँ मोरे खेलन को दे दे मोहन मुरली। मोहन के मन भाय, मो मन मोहिनी सुर-सुरली।
भावार्थ : बालकृष्ण अपनी माँ यशोदा से अपनी प्रिय मुरली माँग रहे हैं। वे कहते हैं कि यह मुरली उनके मन को भाती है और इसकी मधुर ध्वनि उनके मन को मोह लेती है। यह मुरली जीवात्मा के परमात्मा की लीलाओं के प्रति आकर्षण का प्रतीक है।*
देखी स्याम सुंदरता, मति मोरी रहि गइ। पलक ढपकाए रहि गई, वाणी मूक भइ।।
भावार्थ : गोपियाँ श्रीकृष्ण के अनुपम सौंदर्य का वर्णन करती हैं। वे कहती हैं कि उनकी सुंदरता देखकर उनकी बुद्धि स्थिर हो गई, पलकें झपकना भूल गईं और वाणी मौन हो गई।
देखि-देखि श्रमभरे नयन, स्याम सुघराई। सकुचति जुगलकिशोर छवि, कहत न बनि आई।।
भावार्थ : गोपियाँ श्रीकृष्ण के सौंदर्य को बार-बार देखती हैं, उनकी आँखें थक जाती हैं, पर मन तृप्त नहीं होता। वे उस युगल किशोर (राधा-कृष्ण) की छवि का वर्णन करने में भी असमर्थ हैं। अब कैसे घर जाऊँ सजनी, रसिया मोह्यो मन। बिन देखे नन्दलाल के, बैरन लागे जन।। भावार्थ : गोपियाँ अपनी सखी से कहती हैं कि अब उनका मन श्रीकृष्ण में इतना रम गया है कि उनके बिना घर लौटना कठिन है। उन्हें तो अब सभी लोग शत्रु के समान प्रतीत होते हैं। यह प्रेम की व्याकुलता का भाव है। सुनो सखी ! खेलत नंदलाल, धूलि लपटायो तन। झूलत कुंचित काच, लटकत कर्ण भुज बन।।
भावार्थ : इस पद में सूरदास जी बालकृष्ण के खेलते हुए मनोहारी रूप का चित्रण करते हैं। उनके शरीर पर धूल लगी है, घुंघराले बाल बिखरे हैं और कानों में कुंडल तथा भुजाओं में बाजूबंद शोभा दे रहे हैं।
उधो मन न भायो दसवाँ द्वार। अबकै हमैं ब्रज बिसरत नाहीं, रसिया लीन गुवार।।
भावार्थ : यह राधा के वियोग का पद है। वे उद्धव से कहती हैं कि उन्हें योग और ज्ञान का मार्ग पसंद नहीं है। उन्हें तो केवल ब्रज और श्रीकृष्ण की प्रेममयी लीलाएँ ही प्रिय हैं।
श्याम सुन्दर मदन मनोहर, नयन-बंशीधर बृंदावन विहार। मो मन मोह्यो, छबि मोहक, कहत सूर कवि पार न पार।।
भावार्थ : यह पद श्रीकृष्ण की मनमोहक रूप छवि को समर्पित है। कवि सूरदास कहते हैं कि श्याम सुंदर, कामदेव को भी मोहित करने वाले, नयन रूपी बंशी को धारण करने वाले और वृंदावन में विहार करने वाले श्रीकृष्ण की रूप छवि इतनी मोहक है कि उसका वर्णन करना असंभव है। साहित्यिक महत्त्व : सूरदास जी की रचनाएँ न केवल भक्ति रस से ओतप्रोत हैं, बल्कि वे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने स्त्री हृदय की गहराई, माँ के वात्सल्य, प्रेमिका के विरह और भक्त के समर्पण को इतनी कोमलता और जीवंतता से प्रस्तुत किया है कि उनकी रचनाएँ युगों-युगों तक साहित्य जगत में अमर रहेंगी। सूरदास जी ने नेत्रहीन होते हुए भी श्रीकृष्ण की लीलाओं को जिस भावप्रवणता और चित्रात्मकता से चित्रित किया, वह अद्वितीय है। उनके काव्य में भक्ति, सौंदर्य, रस और गहन अनुभव का अद्भुत समन्वय मिलता है। वे न केवल एक महान भक्त थे, बल्कि एक दिव्य दृष्टा, अद्वितीय कवि और भावों के सागर थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण के माधुर्य को अपनी भाषा की सीमाओं में बाँधने का सफल प्रयास किया।
--------- मीरा बाई : अप्रतिम कृष्ण भक्त आलेख : पृष्ठ : १ /१ / ६ . --------- डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा.
जन्म और प्रारंभिक जीवन: मीरा बाई का जन्म १४९८ ई० एक शाही राजपूत परिवार में हुआ था। उनके पिता मेड़ता रियासत के राजा थे। मीरा को बचपन से ही धार्मिक वातावरण मिला। बचपन में एक संत ने उन्हें श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति दी थी, जिसे उन्होंने बाल्यकाल से ही अपना पति और आराध्य मान लिया। वे श्रीकृष्ण की मूर्ति से बात करतीं, उन्हें सजातीं और उनके साथ खेलती थीं। विवाह और पारिवारिक जीवन: मीरा का विवाह युवा अवस्था में मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से हुआ। भोजराज वीर और शालीन व्यक्ति थे, लेकिन वे मीरा की कृष्ण-भक्ति को संपूर्ण रूप से समझ नहीं पाए। विवाह के बाद मीरा अपने कर्तव्यों के साथ-साथ कृष्ण-भक्ति में भी लीन रहीं। पति भोजराज की मृत्यु के बाद मीरा के जीवन में दुःखों और संघर्षों का लंबा सिलसिला शुरू हुआ। ससुराल वालों ने उन्हें हर प्रकार से प्रताड़ित किया। मीरा की कीर्तन-भक्ति, संतों से संगत और घर से बाहर जाकर मंदिरों में गाना – ये सब शाही परिवार की प्रतिष्ठा के विरुद्ध माने जाते थे। मीरा को समाज और परिवार के विरोध का लगातार सामना करना पड़ा। संघर्ष और त्याग: मीरा पर विषपान, साँप भेजने, और मृत्यु के अन्य प्रयास भी हुए, किंतु हर बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें चमत्कारिक रूप से बचा लिया। इन घटनाओं से उनका विश्वास और भक्ति और भी दृढ़ हो गई। अंततः, मीरा ने अपने शाही जीवन, महल, परिवार और राजसी ठाट-बाट को त्याग दिया और कृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानकर भटकती साध्वी बन गईं। भक्ति और साधना यात्रा: मीरा वृंदावन, मथुरा, द्वारका और कई तीर्थ स्थलों पर गईं। उन्होंने भजन-कीर्तन के माध्यम से कृष्ण को पुकारा। वे अक्सर मंदिरों में नाचतीं और गातीं – यह उनकी भक्ति की अभिव्यक्ति थी। वे कहती थीं – "मैं तो सांवरे के रंग राची, और रंग न भाए कोई..." मीरा के पदों में गहरी आत्मिक तल्लीनता, प्रभु से मिलन की आकुलता और विरह वेदना स्पष्ट रूप से दिखती है। संत रविदास से संबंध: मीरा बाई ने संत रविदास को अपना गुरु माना। रविदास जी ने उन्हें आत्मिक मुक्ति और भक्ति के सत्य मार्ग की प्रेरणा दी। मीरा ने सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, पाखंड और स्त्री-पुरुष भेद की दीवारों को तोड़कर सबके लिए भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। काव्य रचना और साहित्यिक योगदान: मीरा बाई ने हज़ारों पदों की रचना की। उनके पदों में: श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम, विरह की पीड़ा, आत्मसमर्पण की भावना, समाज से विद्रोह और मोक्ष की लालसा सब कुछ प्रकट होता है। मीरा बाई के प्रसिद्ध पद कृष्ण भक्ति की चरम अवस्था, आत्म समर्पण, प्रेम, विरह और एकात्मता को दर्शाते हैं। कुछ प्रसिद्ध पद - पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा करि अपनायो॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि मैंने प्रभु नाम का वह अनमोल रत्न पा लिया है, जो असली खजाना है। यह सांसारिक धन-दौलत नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति का साधन है। यह रत्न मुझे मेरे सद्गुरु की कृपा से मिला, जिन्होंने मुझे प्रभु-भक्ति का मार्ग दिखाया। अब मुझे संसार के किसी धन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि मैंने सच्चा धन पा लिया है। मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई। जा के सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि मेरे लिए केवल श्रीकृष्ण ही सब कुछ हैं। न कोई और देवता, न कोई और सहारा। वे ही मेरे पति हैं, मालिक हैं, और आराध्य हैं। उनका सिर पर मोर मुकुट है, वे ब्रज के लीलाधर हैं। मैंने संसार से सभी रिश्ते त्याग दिए, केवल कृष्ण से अपना संबंध जोड़ लिया है। म्हाने चाकर राखो जी, गिरधर लाला। जैसी राखो तैसी रहूं, श्री चरणन की छाया॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा अपने आराध्य श्रीकृष्ण से कहती हैं कि हे प्रभु! मुझे अपना दास बना लो। मैं जैसी भी सेवा कर सकूं, वैसी ही रहकर तुम्हारे चरणों की छाया में जीवन बिताना चाहती हूँ। यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। सेवा में रहकर ही मैं तृप्त हो जाऊंगी। सरकार म्हारो रंगराजा, मैं रंगली रंग-रंगरा। प्रेम रंग में भींज गई मैं, तन मन सारा॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु रंगों के राजा हैं—आनंद, सौंदर्य और प्रेम के प्रतीक। जब उन्होंने मुझे अपने प्रेम के रंग में रंगा, तो मैं पूरी तरह भीग गई। अब मेरी देह, मन, आत्मा सब कुछ उसी रंग में रंग गए हैं। यही मेरी पहचान बन गई है। चरण कमल बिनु दीना न कोई, जो पाए सो धन्य कहाए। मुक्ति मोक्ष सब चरणन में, दरस बिना दुख पाए॥ व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि प्रभु के चरणों के बिना इस संसार में कोई सच्चा सुखी या धनवान नहीं है। जो भी उनके चरणों में स्थान पाता है, वही वास्तव में मुक्त और भाग्यशाली होता है। प्रभु के दर्शन के बिना जीवन व्यर्थ और दुखद है। जोगिया रे, जोग लिया तूने राम नाम, पर मन न लगाया, बिन भाव जप किया॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा एक योगी से कहती हैं कि तुमने दिखावे के लिए राम का नाम तो ले लिया, लेकिन तुम्हारे मन में कोई सच्चा भाव नहीं है। केवल वस्त्र बदल लेने से, या माला फेरने से भक्ति नहीं होती। जब तक हृदय से प्रभु को न चाहो, तब तक यह सब व्यर्थ है। मीरां के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गावै। नाचूंगी मैं प्रीतम के गुण गावत, प्राण तजूं मुसकावै॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर नागर हैं, मैं हर्षित होकर उनके गुण गाती हूँ। नाचती हूँ, गाती हूँ, और आनंद में लीन हो जाती हूँ। यदि मेरा अंत भी प्रभु के नाम गाते हुए हो, तो वह मेरे लिए सबसे सुंदर मृत्यु होगी। मत जाओ री कान्हा, हमें कसम तुम्हारी। बिरह की अगन अब और न सहे जाए॥
व्याख्या और भावार्थ:मीरा अपने प्रिय श्रीकृष्ण से करुण भाव में कहती हैं—हे कान्हा, मत जाओ। अब विरह की आग और सहन नहीं होती। तुम्हारी कसम है, मुझे अकेला छोड़कर मत जाओ। यह पद विरह और प्रेम की तीव्रता का भावपूर्ण चित्रण है। लागी लगन पतियो न तोड़े, गिरधर मोरे साँवरे। सदियों से जो मन में जोड़ी, सो नाता छोड़े ना कोई॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा कहती हैं कि मैंने जो प्रेम की डोर अपने सांवरे श्रीकृष्ण से जोड़ी है, वह अब टूट नहीं सकती। यह कोई सांसारिक बंधन नहीं, यह आत्मा का संबंध है, जो जन्मों-जन्मों तक अटूट रहेगा। अब तो बांध ले मोकों, श्याम रंगरेज। रंग दे चुनरिया मोरी, अपने रंग में॥
व्याख्या और भावार्थ: मीरा प्रभु से कहती हैं कि हे श्याम! अब मुझे अपने प्रेम के रंग में पूरी तरह रंग दो। जैसे रंगरेज कपड़े को रंगता है, वैसे ही तुम मुझे अपने भाव में रंग दो, ताकि मैं तुम्हारे प्रेम में सदा के लिए रंगी रहूं। मृत्यु और अंतकाल: मीरा बाई ने जीवन के अंतिम वर्ष द्वारका में बिताए। ऐसा माना जाता है कि वे वहां के रणछोड़जी मंदिर में श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन थीं। एक कथा के अनुसार, वे मंदिर में कृष्ण मूर्ति के सामने भजन गा रही थीं, और अंत में मूर्ति के भीतर समा गईं। यह घटना उनके परमात्मा में विलय का प्रतीक मानी जाती है। मीराबाई १५४७ ई० के आसपास परमलोक में विलीन हों गई।
विरासत और स्मृति: मीरा बाई आज भी भारत के जनमानस में जीवित हैं। उनके पदों को गाँव-गाँव में गाया जाता है।लोकसंगीत, भजन संध्या, मंदिरों और रामकथाओं में प्रमुखता से शामिल किया जाता है। शास्त्रीय संगीत और सूफी गायन में भी प्रस्तुत किया जाता है। मीरा बाई की जीवनी हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम सांसारिक सीमाओं से परे होता है। आत्मा की स्वतंत्रता सर्वोपरि है। सामाजिक बंधन, प्रतिष्ठा और भय – जब भक्ति मार्ग में आते हैं, तो भक्त उन्हें त्याग देता है। एक नारी भी ईश्वर प्राप्ति की दिशा में पुरुषों से कहीं अधिक गहराई से साधना कर सकती है। मीरा बाई ने कहा था –"प्रेम दीवानी मैं ऐसी, हरि गुण गाऊँ दिन रात..."उनका जीवन आज भी उन सभी के लिए दीपस्तंभ है, जो ईश्वर, प्रेम और सत्य की खोज में हैं।
-------- अर्जुन और श्रीकृष्ण : मित्रता से भक्ति तक की यात्रा आलेख : पृष्ठ : १ /१ / ५ . --------- * श्रीकृष्ण के महानतम भक्त अर्जुन: भक्ति, कर्तव्य और धर्म का अमर प्रतीक जब भी भक्त और भगवान के बीच के अटूट प्रेम और समर्पण की बात होती है, तब अर्जुन और श्रीकृष्ण का अद्भुत संबंध सबसे पहले याद आता है। अर्जुन केवल एक महावीर योद्धा ही नहीं थे, बल्कि वे भगवान श्रीकृष्ण के सबसे प्रिय भक्त, मित्र और शिष्य भी थे। उनका जीवन भक्ति, कर्तव्य और धर्म के उच्चतम आदर्शों का जीवंत उदाहरण है। अर्जुन का जीवन: प्रारंभ से ही विशेष अर्जुन का जन्म पांडु और कुंती के पुत्र के रूप में हुआ, लेकिन वास्तव में वे स्वयं देवताओं के राजा इंद्र के पुत्र थे। इसलिए, उनमें अपार शक्ति, बुद्धिमत्ता और युद्ध कौशल जन्मजात था। उन्होंने बचपन से ही धनुर्विद्या में असाधारण निपुणता दिखाई और गुरु द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य बने। अर्जुन के कई नाम : अर्जुन के कई नाम थे, जिनमें से प्रत्येक उनके गुणों को दर्शाता है: पार्थ – कुंतीपुत्र होने के कारण गांडीवधारी – उनके दिव्य धनुष "गांडीव" के कारण,कपिध्वज – उनके रथ पर हनुमानजी का ध्वज होने के कारण,फाल्गुन – फाल्गुन मास में जन्म लेने के कारण लेकिन इन सबसे ऊपर, अर्जुन को जिस उपाधि ने अमर बना दिया, वह थी श्रीकृष्ण के महानतम भक्त होने की पहचान। अर्जुन और श्रीकृष्ण : मित्रता से भक्ति तक की यात्रा : अर्जुन और श्रीकृष्ण का संबंध केवल मित्रता तक सीमित नहीं था। यह एक ऐसा दिव्य बंधन था, जिसमें प्रेम, विश्वास और आत्मसमर्पण की पराकाष्ठा देखने को मिलती है। श्रीकृष्ण अर्जुन के मार्गदर्शक, संरक्षक और सबसे बड़े हितैषी थे। मोहग्रस्त अर्जुन और गीता का ज्ञान : जब अर्जुन ने अपने प्रियजन के खिलाफ युद्ध से इंकार कर दिया महाभारत युद्ध के दौरान, जब अर्जुन ने अपने सगे-संबंधियों को अपने सामने खड़ा देखा, तो वे मोहग्रस्त हो गए। उनके हाथ काँपने लगे, उन्होंने धनुष रख दिया और कहा, 'हे माधव! मैं अपने ही परिवार पर बाण नहीं चला सकता। यह युद्ध मुझे धर्म से विमुख कर रहा है। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का अमर उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि आत्मा अजर-अमर है, मृत्यु केवल एक परिवर्तन है। अर्जुन को समझाया कि उनका कर्तव्य (धर्म) सबसे ऊपर है। निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाया,' कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। ' इस उपदेश के बाद, अर्जुन ने अपने सारे संदेह दूर कर दिए और श्रीकृष्ण की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया। वे अब केवल योद्धा नहीं, बल्कि भगवान के आज्ञाकारी भक्त बन चुके थे। अर्जुन श्रीकृष्ण सुभद्रा : अर्जुन की भक्ति के अद्भुत प्रसंग जब अर्जुन ने सुभद्रा को हर लिया अर्जुन और श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा का विवाह एक रोमांचक कथा है। श्रीकृष्ण चाहते थे कि अर्जुन उनकी बहन से विवाह करें, लेकिन सुभद्रा का विवाह किसी और से तय किया जा रहा था। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुभद्रा हरण करने की सलाह दी। अर्जुन ने ऐसा ही किया और सुभद्रा को अपने रथ में बैठाकर ले गए। यह विवाह स्वयं श्रीकृष्ण की इच्छा से हुआ था, जो यह दर्शाता है कि वे अर्जुन को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते थे। विराट युद्ध में अर्जुन की अपराजेयता : अपने अज्ञातवास के दौरान, अर्जुन ने एक नर्तक "बृहन्नला" का वेश धारण किया था। लेकिन जब कौरवों ने राजा विराट के राज्य पर हमला किया, तो अर्जुन ने अकेले ही पूरी कौरव सेना को पराजित कर दिया। इस युद्ध में उन्होंने दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया, जिसे वे श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त कर चुके थे। श्रीकृष्ण का विराट स्वरूप: अर्जुन की भक्ति की परीक्षा महाभारत युद्ध के दौरान, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन दिए। अर्जुन ने देखा कि श्रीकृष्ण के अनंत मुख हैं, अनगिनत भुजाएँ हैं और संपूर्ण ब्रह्मांड उनके भीतर समाहित है। यह देखकर अर्जुन भावविभोर हो गए और भय तथा प्रेम से भरकर भगवान की शरण में चले गए। यह प्रसंग अर्जुन की भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है। अर्जुन की भक्ति से सीखने योग्य बातें भगवान पर पूर्ण विश्वास : अर्जुन ने श्रीकृष्ण की हर आज्ञा को बिना संदेह के स्वीकार किया। कर्तव्य और धर्म से विमुख न हों,अर्जुन ने सिखाया कि धर्म और कर्तव्य को सर्वोच्च रखना चाहिए। निष्काम कर्म : हमें अपने कार्यों का फल भगवान पर छोड़ देना चाहिए। भगवान के प्रति प्रेम और आत्मसमर्पण : अर्जुन का जीवन दर्शाता है कि भक्ति केवल पूजा करने से नहीं, बल्कि भगवान के दिखाए मार्ग पर चलने से सिद्ध होती है। श्रीकृष्ण के निधन के बाद अर्जुन की भक्ति : जब श्रीकृष्ण ने इस धरती से विदा ली, तो अर्जुन अत्यंत दुखी हो गए। वे स्वयं को शक्तिहीन महसूस करने लगे। जब वे द्वारका से लौट रहे थे, तो कुछ डाकुओं ने हमला कर दिया, लेकिन अर्जुन उनसे लड़ नहीं पाए। तब उन्हें यह एहसास हुआ कि उनकी सारी शक्ति केवल श्रीकृष्ण की कृपा से थी। उन्होंने श्रीकृष्ण की स्मृति में गंगा तट पर तपस्या की और अंततः स्वर्गारोहण कर गए। अर्जुन एक योद्धा, एक भक्त, एक आदर्श पुरुष अर्जुन केवल महाभारत के महानायक नहीं थे, बल्कि वे भक्ति, समर्पण और कर्तव्यनिष्ठा के प्रतीक भी थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि भगवान की भक्ति केवल मंदिरों तक सीमित नहीं होती, बल्कि उनके मार्ग पर चलने में है। आज भी, जब कोई निष्काम कर्म, भक्ति और कर्तव्य की बात करता है, तो अर्जुन का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। वे केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे, हैं, और सदैव रहेंगे !
* सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता : श्री कृष्ण सदा सहायते : आलेख : पृष्ठ : १ /१ / ४. * कहाँ सुदामा बापुरो कृष्ण मिताई जोग भक्त सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता: एक अनुपम कथा. * डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
 | श्रीकृष्ण और सुदामा |
सुदामा, जिन्हें कुचेला के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त और घनिष्ठ मित्र थे। वे बचपन में श्रीकृष्ण के साथ संदीपनि मुनि के आश्रम में विद्याध्ययन करते थे। सुदामा का जीवन सादगी,भक्ति और मित्रता का अनुपम उदाहरण है। श्रीकृष्ण और सुदामा की अमर मित्रता : श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता बचपन से ही अटूट थी। संदीपनि मुनि के गुरुकुल में दोनों ने साथ-साथ वेद, शास्त्र और नैतिक शिक्षा का अध्ययन किया। एक दिन जब वे जंगल में लकड़ियाँ इकट्ठा करने गए, तो अचानक भारी वर्षा आ गई और वे रातभर वहीं ठहरने को मजबूर हो गए। इस कठिन समय में भी उनकी मित्रता और प्रेम और गहरा हो गया। गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने के बाद दोनों मित्र अपने-अपने जीवन पथ पर आगे बढ़े। श्रीकृष्ण द्वारका के राजा बने, जबकि सुदामा एक निर्धन ब्राह्मण के रूप में जीवन व्यतीत करने लगे। हालांकि उनकी भक्ति और प्रेम कभी नहीं बदला। निर्धनता में भी भक्ति की चमक सुदामा का जीवन अत्यंत कठिनाई भरा था। उनकी पत्नी भी अत्यंत धर्मपरायण थीं। जब उन्होंने अपने पति की दुर्दशा देखी, तो आग्रह किया कि वे अपने मित्र श्रीकृष्ण से सहायता माँगें। पहले तो सुदामा संकोच करते रहे, लेकिन अंततः वे द्वारका जाने के लिए तैयार हुए। उनकी पत्नी ने उनके लिए थोड़े से चावल बांध दिए, ताकि वे श्रीकृष्ण को भेंट कर सकें। द्वारका में मित्रता की भव्य परीक्षा : सुदामा जब द्वारका पहुँचे, तो वहाँ के भव्य महलों को देखकर चकित रह गए। क्या श्रीकृष्ण उन्हें अब भी याद करेंगे? लेकिन जैसे ही श्रीकृष्ण को उनके आगमन की सूचना मिली, वे नंगे पैर दौड़ते हुए आए और प्रेमपूर्वक सुदामा को गले लगा लिया। श्रीकृष्ण ने अपने मित्र का बड़े आदर और स्नेह से स्वागत किया। उन्होंने स्वयं उनके चरण धोए, उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठाया और बड़े प्रेम से उनकी सेवा की। यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग चकित रह गए कि स्वयं द्वारकाधीश एक साधारण ब्राह्मण की इतनी सेवा कर रहे हैं। प्रेम का उपहार : चावल के दानों में समाया आशीर्वाद। सुदामा संकोचवश अपनी पोटली नहीं खोल पा रहे थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने जबरदस्ती उसे लेकर उसमें से चावल के दाने निकाल लिए और प्रेमपूर्वक खाने लगे। जैसे ही उन्होंने पहला कौर खाया, सुदामा के घर धन-धान्य की वर्षा होने लगी। दूसरे कौर पर उनका टूटा-फूटा झोपड़ा महल में बदल गया। तीसरा कौर खाने ही वाले थे कि रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण को रोक दिया, क्योंकि सुदामा के लिए इतना ही पर्याप्त था। घर वापसी और चमत्कार का रहस्य : जब सुदामा घर लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका झोपड़ा अब एक भव्य महल बन चुका था। उनकी पत्नी और बच्चे सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित थे। यह देखकर वे अत्यंत भावुक हो गए और भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में और भी लीन हो गए। लेकिन उन्होंने कभी अहंकार को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया और सादगी तथा भक्ति का मार्ग अपनाए रखा। सीख है की सच्ची मित्रता निःस्वार्थ होती है : सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता प्रेम और विश्वास पर आधारित थी।भक्ति में अपार शक्ति होती है – सुदामा की निःस्वार्थ भक्ति ने उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। भगवान अपने भक्तों की चिंता करते हैं – सुदामा ने कुछ नहीं माँगा, लेकिन श्रीकृष्ण ने उनके जीवन को संवार दिया। धन से अधिक प्रेम और श्रद्धा का महत्व है – सुदामा के पास भले ही धन न था, लेकिन उनके पास भक्ति और निष्ठा थी। संयम और संतोष से जीवन सार्थक बनता है – अपार धन-सम्पत्ति प्राप्त करने के बाद भी सुदामा ने अपनी सादगी नहीं छोड़ी। भगवान प्रेम और भावना के भूखे होते हैं – श्रीकृष्ण को भोग की नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति की आवश्यकता होती है। भक्ति और प्रेम का संदेश : भक्ति और प्रेम का संदेश सुदामा और श्रीकृष्ण की कथा भक्ति, निःस्वार्थ प्रेम और सच्ची मित्रता का प्रतीक है। यह हमें यह प्रेरणा देती है कि अगर भक्ति सच्ची हो, तो भगवान स्वयं अपने भक्त की हर विपदा को दूर करते हैं। सुदामा का जीवन त्याग, भक्ति और मित्रता का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिससे हम सभी को सीख लेनी चाहिए। इस कथा को पढ़कर हमें यह समझ में आता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति ही जीवन का सबसे बड़ा धन है। भौतिक सुख-संपत्ति क्षणिक होती है, लेकिन सच्चा प्रेम और विश्वास सदा के लिए बना रहता है। यही सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता का संदेश है।
* भगवान कृष्ण के परम भक्त उद्धव: श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र और सलाहकार. भक्ति, ज्ञान और उनके दिव्य संदेश : आलेख : १ / १ / ३ .
डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
कृष्ण : गोपियाँ : उद्धव : संवाद : फोटो : साभार
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में कई अद्वितीय भक्तों की भूमिका रही, लेकिन उद्धव जी का स्थान उनमें सर्वोच्च माना जाता है। वे केवल श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र और सलाहकार ही नहीं थे, बल्कि उनकी शिक्षाओं के प्रचारक और योग एवं ज्ञान के प्रतीक भी थे। उद्धव जी की कथा हमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराती है। यह हमें बताती है कि भगवान की सच्ची भक्ति केवल तर्क और शास्त्र ज्ञान से प्राप्त नहीं होती, बल्कि पूर्ण प्रेम और समर्पण से मिलती है। इस लेख में हम उद्धव जी के जीवन, उनकी भक्ति, भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनके संबंध और "उद्धव संदेश" के महत्व पर विस्तार से चर्चा करेंगे। उद्धव जी का परिचय : कौन थे उद्धव ? उद्धव जी वृष्णि वंश के एक प्रतिष्ठित और विद्वान पुरुष थे। वे महर्षि बृहस्पति के शिष्य थे और वेदों, शास्त्रों, योग और नीति में अत्यंत निपुण थे। उनकी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक ज्ञान के कारण वे द्वारका में श्रीकृष्ण के प्रमुख सलाहकारों में से एक थे। श्रीकृष्ण के प्रति उद्धव जी की निष्ठा इतनी प्रगाढ़ थी कि वे उनके प्रत्येक कार्य को आदर्श मानते थे। वे श्रीकृष्ण को केवल एक मित्र ही नहीं, बल्कि ब्रह्म का साक्षात स्वरूप मानते थे। उनकी बुद्धिमत्ता और तर्कशक्ति इतनी विलक्षण थी कि वे प्रत्येक विषय पर गहराई से चिंतन कर सकते थे, लेकिन यही ज्ञान बाद में उनके लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षा का कारण बना। उद्धव और श्रीकृष्ण का अटूट संबंध : भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव के बीच का संबंध केवल मित्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि वह गुरु-शिष्य के पवित्र बंधन में भी बंधा था। श्रीकृष्ण अक्सर उद्धव जी को अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भेजते थे, जिससे पता चलता है कि वे उन पर कितना विश्वास करते थे। जब द्वारका में श्रीकृष्ण का राज्य था, तब उद्धव ही उनके सबसे भरोसेमंद मंत्री थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने उद्धव को न केवल सांसारिक ज्ञान का प्रतीक माना, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी उन्हें विशेष भूमिका प्रदान की। उद्धव और गोपियों का संवाद : भक्ति का परम स्वरूप उद्धव का वृंदावन गमन जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए और फिर द्वारका में राज्य स्थापित किया, तब वृंदावन की गोपियाँ, विशेष रूप से राधा जी, उनके वियोग में अत्यंत दुखी थीं। वे श्रीकृष्ण के प्रेम में इतनी लीन थीं कि उन्हें सांसारिक जगत का कोई भान नहीं था। इस स्थिति को देखकर श्रीकृष्ण ने उद्धव जी को वृंदावन भेजा ताकि वे गोपियों को योग, ज्ञान और ध्यान का उपदेश देकर उनके कष्टों को शांत कर सकें। उद्धव जी को विश्वास था कि वे अपने तर्क और शास्त्रीय ज्ञान से गोपियों को समझा सकेंगे। गोपियों की अनन्य भक्ति और उद्धव का आत्मबोध : वृंदावन पहुँचने के बाद जब उद्धव जी ने गोपियों से वार्तालाप किया, तो वे चकित रह गए। उन्होंने देखा कि गोपियाँ किसी भी शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं समझतीं; उनके लिए केवल श्रीकृष्ण की स्मृति ही सब कुछ थी। गोपियों ने उद्धव से कहा : "उद्धव जी! हमें योग, ध्यान, ज्ञान और शास्त्रों की आवश्यकता नहीं। हमारा मन तो केवल श्रीकृष्ण में ही लीन है। जब हम उन्हें देख नहीं पातीं, तो हमारा हृदय जलने लगता है। क्या कोई ज्ञान इस वेदना को शांत कर सकता है? " यह सुनकर उद्धव जी को यह अहसास हुआ कि जो प्रेम गोपियों के हृदय में था, वह किसी भी शास्त्रीय ज्ञान से कहीं अधिक ऊँचा था। यह भक्ति केवल प्रेम नहीं थी, बल्कि आत्मा का संपूर्ण समर्पण थी। उद्धव का ज्ञान से प्रेम की ओर परिवर्तन : गोपियों की भक्ति ने उद्धव जी के जीवन को पूरी तरह बदल दिया। उन्हें यह अहसास हुआ कि भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप निष्काम प्रेम और समर्पण है, न कि केवल ज्ञान और तर्क। इस घटना के बाद उद्धव जी ने श्रीकृष्ण से कहा: "हे प्रभु! आपने मुझे गोपियों के पास भेजा था ताकि मैं उन्हें ज्ञान दे सकूँ, लेकिन अब मैं ही उनसे सीखकर आया हूँ। कृपया मुझे भी ऐसी ही भक्ति प्रदान करें !" इस प्रकार, उद्धव जी का यह अनुभव भक्ति मार्ग का एक महत्वपूर्ण संदेश बन गया, जिसे "उद्धव संदेश" के रूप में जाना जाता है। उद्धव संदेश : भक्ति का परम स्वरूप : उद्धव जी की वृंदावन यात्रा ने उन्हें यह सिखाया कि -ज्ञान से बढ़कर भक्ति होती है – केवल शास्त्र पढ़ना और तर्क करना पर्याप्त नहीं है; भगवान के प्रति निष्काम प्रेम ही सच्ची भक्ति है। भक्ति में अहंकार नहीं होता – गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति इतनी समर्पित थीं कि वे अपने अस्तित्व तक को भूल चुकी थीं। भक्ति का मार्ग सरल है – प्रेम और समर्पण से ही भगवान को पाया जा सकता है; कठिन योग और ज्ञान आवश्यक नहीं। इस संदेश के कारण उद्धव जी को भक्ति योग का प्रचारक माना जाता है। उद्धव और द्वारका का अंत : जब द्वारका का नाश होने वाला था और भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं का समापन कर रहे थे, तब उद्धव जी ने उनसे मार्गदर्शन माँगा। श्रीकृष्ण ने उन्हें हिमालय जाने और भक्ति एवं ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का निर्देश दिया। उद्धव जी ने भगवान की आज्ञा का पालन किया और अपना शेष जीवन हिमालय में तपस्या और ध्यान में व्यतीत किया। उद्धव जी की कथा हमें सिखाती है कि भगवान की सच्ची भक्ति में तर्क और ज्ञान से अधिक प्रेम और समर्पण का स्थान है। गोपियों का प्रेम हमें दिखाता है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष योग या विद्या की आवश्यकता नहीं, केवल हृदय की शुद्धता आवश्यक है। उद्धव संदेश भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश है – भगवान को केवल प्रेम और समर्पण से पाया जा सकता है। उद्धव जी की कथा केवल श्रीकृष्ण भक्तों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी साधकों के लिए एक प्रेरणा है। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि जब भक्ति निष्काम और पूर्ण समर्पण के साथ की जाती है, तब भगवान स्वयं अपने भक्त को अपना बना लेते हैं।
* राधिका कृष्ण : सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : १ /१ / २. कृष्ण भक्त राधारानी : लाडली : प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा हैं बरसाने वाली.
डॉ. संतोष आनंद मिश्रा. लेखक. ब्लॉगर. * भूमिका : राधा रानी भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में भक्ति, प्रेम और समर्पण की पराकाष्ठा मानी जाती हैं। वे श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिका और भक्त हैं। हिंदू धर्म, विशेष रूप से वैष्णव परंपरा में, राधा-कृष्ण को एक अटूट आध्यात्मिक युगल के रूप में पूजा जाता है। उनकी प्रेम गाथा केवल लौकिक प्रेम नहीं है, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक भी है। राधा रानी का जीवन परिचय : राधा रानी का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में स्थित बरसाना नामक स्थान पर हुआ था। वे वृषभानु गोप और उनकी पत्नी कीर्ति देवी की पुत्री थीं। जन्म से ही वे दिव्य लक्षणों से युक्त थीं और श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अगाध भक्ति बचपन से ही प्रकट हो गई थी। कई पुराणों और ग्रंथों में उनके जन्म से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ मिलती हैं। कुछ ग्रंथों के अनुसार, वे श्रीकृष्ण की नित्य संगिनी और गोलोक धाम की शक्ति स्वरूपा हैं, जो उनकी लीलाओं के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। राधा-कृष्ण का दिव्य प्रेम : श्रीकृष्ण और राधा रानी के प्रेम को केवल सांसारिक दृष्टि से नहीं देखा जाता, बल्कि इसे आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है। यह प्रेम किसी बंधन में बंधा हुआ नहीं था, बल्कि यह त्याग, समर्पण और भक्ति से परिपूर्ण था। राधा-कृष्ण की प्रेम लीला वृंदावन, बरसाना, नंदगांव, और गोवर्धन जैसे स्थलों पर फैली हुई थी। रासलीला, झूलन उत्सव, और होली जैसे पर्व उनके प्रेम की अनमोल झलक प्रस्तुत करते हैं। श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण, और गीता गोविंद में इस दिव्य प्रेम का विस्तृत वर्णन मिलता है।
 | राधा रानी की भक्ति का स्वरूप :कृष्ण के साथ अद्वैत प्रेम : साभार. |
राधा रानी की भक्ति का स्वरूप : राधा रानी की भक्ति को माधुर्य भक्ति कहा जाता है, जिसमें भक्त और भगवान के बीच आत्मिक एकता होती है। भक्तिरस शास्त्रों में भक्ति के चार प्रमुख रूप बताए गए हैं— १. दास्य भाव : भगवान की सेवा करना २.सख्य भाव : भगवान को मित्र के रूप में देखना ३. वात्सल्य भाव भगवान को संतान रूप में मानना ४. माधुर्य भाव भगवान को प्रेमी रूप में पूजना राधा रानी की भक्ति माधुर्य भाव की चरम अवस्था को दर्शाती है। उन्होंने अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था। यह भक्ति इस बात का प्रतीक है कि जब प्रेम पूर्ण समर्पण से युक्त होता है, तो वह सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य हो जाता है। राधा-कृष्ण भक्ति परंपरा में योगदान : राधा-कृष्ण के प्रेम को संतों और भक्त कवियों ने अपनी काव्य साधना का विषय बनाया है। सूरदास, रसखान, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी हरिदास जैसे भक्तों ने राधा-कृष्ण की प्रेमलीला को अपने भजन और काव्य में अभिव्यक्त किया। वृंदावन और बरसाना में आज भी राधा-कृष्ण की प्रेम भक्ति की गूंज सुनाई देती है।चैतन्य महाप्रभु ने तो स्वयं को राधा रानी की भक्ति में लीन कर दिया था और उनके अनुयायियों ने वैष्णव भक्ति परंपरा को पूरे भारत में फैलाया। राधा रानी का आध्यात्मिक महत्व : राधा रानी को श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति माना जाता है, जो भक्ति और प्रेम का स्वरूप है। उन्हें महाभाव स्वरूपिणी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि वे प्रेम की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर चुकी हैं। वैष्णव संतों के अनुसार, जब तक कोई भक्त राधा रानी की कृपा प्राप्त नहीं करता, तब तक वह श्रीकृष्ण की भक्ति में संपूर्ण नहीं हो सकता। इसीलिए वृंदावन में भक्तजन "राधे राधे" का जाप करते हैं और राधा नाम को ही सबसे पवित्र मानते हैं। राधा अष्टमी और उनकी पूजा : राधा रानी की जयंती को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। यह जन्माष्टमी के ठीक १५ दिन बाद आती है। इस दिन विशेष रूप से वृंदावन, बरसाना, और मथुरा में भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। बरसाना में राधा रानी का मंदिर, जिसे श्रीजी मंदिर कहा जाता है, लाखों भक्तों की आस्था का केंद्र है। राधा रानी से प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक संदेश : राधा रानी का जीवन हमें कई आध्यात्मिक संदेश देता हैं १. अनन्य भक्ति – उनकी भक्ति हमें सिखाती है कि ईश्वर से प्रेम निष्काम और पूर्ण समर्पण से युक्त होना चाहिए। २. त्याग और समर्पण – उन्होंने अपने अस्तित्व को श्रीकृष्ण के लिए समर्पित कर दिया, जिससे पता चलता है कि सच्चा प्रेम त्यागमयी होता है। ३.आध्यात्मिक प्रेम की महिमा – उनका प्रेम यह दर्शाता है कि जब प्रेम आत्मा का प्रेम होता है, तो वह शुद्ध और शाश्वत हो जाता है। राधा रानी केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति और प्रेम की दिव्य शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे श्रीकृष्ण की आत्मीय शक्ति हैं और उनकी भक्ति के बिना कृष्ण भक्ति अधूरी मानी जाती है। यही कारण है कि आज भी वृंदावन और बरसाना में भक्तजन "राधे-राधे" कहकर अपने हृदय को प्रेम और भक्ति से भरते हैं। राधा रानी का जीवन प्रेम, भक्ति और समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण है। उनकी भक्ति हमें यह सिखाती है कि जब प्रेम निष्कलुष और पूर्ण समर्पण से युक्त हो, तो वह सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य हो जाता है। *
स्तंभ संपादन : राधारानी : लाडली : प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा हैंशक्ति.सम्पादिका. डॉ. नूतन : लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड. पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति मीडिया.
-------- ब्रज की गोपियाँ : सम्पादकीय : राधिका कृष्ण : सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : १ /१ /१. . --------- *
डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
ब्रज की गोपियाँ : रासलीला : कृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा :
महान भक्त: ब्रज की गोपियाँ : भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में ब्रज की गोपियाँ भक्ति, प्रेम और आत्मसमर्पण की सबसे उत्तम मिसाल मानी जाती हैं। उनके प्रेम की गहराई इतनी असीम थी कि वह लौकिक नहीं बल्कि दिव्य प्रेम में परिवर्तित हो गई। यह प्रेम सांसारिक आसक्ति से परे था और केवल भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण समर्पण का प्रतीक था। उनकी भक्ति श्रीमद्भागवत महापुराण, महाभारत, हरिवंश पुराण और कई वैष्णव ग्रंथों में विशेष रूप से वर्णित है। गोपियाँ न केवल श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिकाएँ थीं, बल्कि वे जीवात्मा के उस रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं जो परमात्मा की ओर भागने को तत्पर रहता है। उनकी भक्ति "रागानुगा भक्ति" का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती है, जिसमें भक्त भगवान के प्रति सहज प्रेम और अनुराग से भरा होता है। गोपियों का जीवन: प्रेम और भक्ति का संगम : गोपियाँ वृंदावन, नंदगांव और बरसाना की वे साधारण ग्वालिनें थीं, जो अपने परिवार और गृहस्थी में व्यस्त रहती थीं। वे दिनभर घर-गृहस्थी के कामों में लगी रहतीं, लेकिन उनके मन और हृदय में केवल श्रीकृष्ण ही बसते थे। जब वे श्रीकृष्ण को देखतीं, तो उनकी आँखों में प्रेम छलक उठता और जब वे दूर होते, तो विरह में व्याकुल हो उठतीं। गोपियों की भक्ति केवल बाहरी नहीं थी, बल्कि यह एक आंतरिक साधना थी। उनका प्रेम इतना अनन्य था कि उन्होंने संसार के सभी नियमों और बंधनों को त्यागकर केवल कृष्ण में ही अपनी आत्मा को विलीन कर दिया। गोपियों की निश्छल भक्ति : गोपियों की भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता थी कि यह किसी स्वार्थ या फल की इच्छा से प्रेरित नहीं थी। उन्होंने न तो मोक्ष की कामना की, न ही किसी सांसारिक सुख की। वे केवल कृष्ण की सेवा, उनके दर्शन और उनके सान्निध्य की अभिलाषी थीं। उनकी भक्ति उस आत्मसमर्पण का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसे संपूर्ण वैष्णव परंपरा ने अपने मूल सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है: "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।" भगवद्गीता ९. २२ अर्थात्, जो लोग अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, मैं स्वयं उनके योग : आवश्यकताओं और क्षेम सुरक्षा का वहन करता हूँ। गोपियाँ इसी अनन्य भक्ति का जीता-जागता प्रमाण थीं। रासलीला : प्रेम की पराकाष्ठा : रासलीला ब्रज की गोपियों की भक्ति का सबसे दिव्य और रहस्यमय पक्ष है। यह केवल एक नृत्य नहीं था, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच के प्रेम का साकार रूप था। जब श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली बजाई, तो सभी गोपियाँ अपनी गृहस्थी और सांसारिक कार्यों को छोड़कर उनकी ओर दौड़ पड़ीं। यह प्रतीक था कि जब भगवान भक्त को पुकारते हैं, तो उसे संसार की हर चीज़ को त्यागकर उनकी शरण में जाना चाहिए। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है कि जब गोपियाँ रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं, तब उन्होंने यह अनुभव किया कि श्रीकृष्ण हर गोपी के साथ व्यक्तिगत रूप से नृत्य कर रहे हैं। यह भगवान की सर्वव्यापकता और भक्त के प्रति उनकी व्यक्तिगत कृपा को दर्शाता है। यह लीलाएँ केवल ऐतिहासिक घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि उनमें गहरा आध्यात्मिक रहस्य छिपा है। वे सिखाती हैं कि जब भक्त अपने अहंकार, आसक्ति और सांसारिक बंधनों को छोड़ देता है, तब वह भगवान के साथ एक हो सकता है। गोपियों का विरह: भक्ति की परिपक्वता : जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए, तो ब्रज की गोपियाँ उनके वियोग में अत्यधिक दुखी हो गईं। उन्होंने रो-रोकर अपने प्राणों को तड़पाया और अपने शरीर की सुध-बुध तक खो दी। वे वृंदावन के कुंजों में, यमुना के तटों पर, और उन सभी स्थानों पर भटकतीं, जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण कभी गए थे।वियोग की यह स्थिति भक्त की भक्ति को परिपक्व बनाती है। जब भगवान दूर चले जाते हैं, तब ही भक्त का प्रेम और भी तीव्र हो जाता है। यही कारण है कि गोपियों का विरह भक्ति का सर्वोच्च रूप माना गया है।श्रीमद्भागवत में गोपियों द्वारा गाए गए "गोपि-गीत" (भागवत 10.31) को भक्ति साहित्य में सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है। इसमें गोपियाँ कृष्ण को पुकारती हैं और उनके विरह में अपना प्रेम व्यक्त करती हैं। गोपियों की भक्ति का प्रभाव और महत्व : गोपियों की भक्ति ने भारतीय संतों और भक्तों को सदियों से प्रेरित किया है। चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीराबाई और अन्य अनेक संतों ने गोपियों की भक्ति को अपने जीवन में अपनाया और उसे अपनी साधना का आधार बनाया। भक्ति आंदोलन पर प्रभाव : भक्ति आंदोलन में गोपियों की भक्ति को विशेष महत्व दिया गया। संतों ने इसे यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया कि ईश्वर केवल उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो निस्वार्थ प्रेम और पूर्ण समर्पण के साथ उनकी भक्ति करते हैं। चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण की गोपी-भाव वाली भक्ति को अपनाकर प्रेम की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि गोपियों का प्रेम भक्ति की चरम अवस्था है और हर भक्त को इसी मार्ग पर चलना चाहिए। साहित्य और कला में गोपियाँ : गोपियों के प्रेम और भक्ति को आधार बनाकर अनेक ग्रंथ लिखे गए। सूरदास की रचनाएँ गोपियों के कृष्ण-विरह को अत्यंत मार्मिक रूप में चित्रित करती हैं। रसखान ने भी अपनी रचनाओं में गोपियों के प्रेम को अमर कर दिया। इसके अलावा, संगीत, नृत्य और चित्रकला में भी गोपियों की भक्ति को अत्यंत सुंदर रूप में प्रस्तुत किया गया है। आज भी मंदिरों में कीर्तन और भजन में गोपियों की भक्ति का गान किया जाता है। गोपियाँ – भक्ति का आदर्श स्वरूप : ब्रज की गोपियाँ भक्ति और प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण हैं। उनकी भक्ति हमें सिखाती है कि ईश्वर को पाने का मार्ग केवल निष्काम प्रेम और आत्मसमर्पण है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि जब कोई अपने अहंकार, मोह और सांसारिक बंधनों को त्यागकर पूर्ण रूप से भगवान को समर्पित कर देता है, तब वह भगवान के प्रेम का साक्षात्कार कर सकता है। गोपियों का प्रेम केवल लौकिक प्रेम नहीं था, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन की गाथा थी। यही कारण है कि उनकी भक्ति आज भी भक्तों के लिए आदर्श बनी हुई है। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि भक्ति का अर्थ केवल पूजा-अर्चना नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण और प्रेम है।इसलिए, गोपियों की भक्ति को समझना और उसे अपने जीवन में अपनाना, भगवान की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल और सुंदर मार्ग है। राधे राधे......
डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.
सम्पादकीय : राधिका कृष्ण : सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : १ /१ /० . * श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते. गोविन्द बोलो हरि गोपाल बोलो. *
डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. *
कृष्ण भक्त द्रौपदी : उनकी भक्ति और श्रीकृष्ण का सखा भाव * : महाभारत के सबसे मार्मिक और प्रेरणादायक प्रसंगों में से एक है द्रौपदी और श्रीकृष्ण की मित्रता। द्रौपदी केवल पांडवों की पत्नी ही नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त भी थीं। वे उन्हें अपना सखा (मित्र) मानती थीं और हर कठिन परिस्थिति में कृष्ण का स्मरण करती थीं। बदले में श्रीकृष्ण ने भी हर संकट में उनकी सहायता की और उनकी रक्षा का दायित्व निभाया। द्रौपदी और श्रीकृष्ण की पहली भेंट : द्रौपदी का जन्म अग्नि से हुआ था और वे पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री थीं। जब उनके स्वयंवर का आयोजन हुआ, तो इसमें श्रीकृष्ण भी उपस्थित थे। उन्होंने स्वयंवर में कुछ नहीं किया, लेकिन वे जानते थे कि अर्जुन ही वह वीर हैं जो इस परीक्षा में सफल होंगे। स्वयंवर के पश्चात जब अर्जुन द्रौपदी को अपने घर ले गए और माता कुंती ने अनजाने में कहा कि "जो भी लाए हो, उसे आपस में बाँट लो," तब द्रौपदी को पाँचों पांडवों की पत्नी बनना पड़ा। इस कठिन स्थिति में भी श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को सांत्वना दी और कहा कि ' तुम्हारा विवाह किसी साधारण पुरुष से नहीं, बल्कि पाँच महान योद्धाओं से हुआ है, जो धर्म के रक्षक हैं। तुम सदैव धर्म का पालन करना और मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा। '
शॉर्ट रील : माधव की रक्षा : द्रौपदी के लिए.
* हमारी सम्पादकीय शक्ति * समूह का विश्वास : हे माधव ! यदि आप मेरे जीवन के सारथी हो जाए तो मैं किसी ऐसे नूतन विश्व का निर्माण कर ही लूंगा जिसमें मात्र अनंत ( श्री लक्ष्मीनारायण ) शिव ( कल्याणकारी ) शक्तियाँ ही होगी होलिका की अग्नि में मेरे अंतर्मन की चिर ईर्ष्या, पीड़ा ,द्वेष ,और बुराई जलकर भस्म हो..... हे : परमेश्वर : आदि शक्ति : जीवन के इस अंतहीन सफ़र में तू मुझे मात्र ' सम्यक साथ ' प्रदान कर जिससे मेरी ' दृष्टि ' , ' सोच ' ,' वाणी ', और ' कर्म ' परमार्जित हो सके...यह हमसबों का सम्मिलित विश्वास है। द्रौपदी की साड़ी का उपहार और श्रीकृष्ण का ऋण *: एक कथा के अनुसार, जब शिशुपाल का वध करने के दौरान श्रीकृष्ण के हाथ से खून बहने लगा, तो द्रौपदी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर बाँध दिया। यह श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम और सेवा-भाव का प्रतीक था। इस पर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा, "सखी! तुमने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं इसका ऋण अवश्य चुकाऊँगा। जब भी तुम संकट में होगी, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।" यही वचन आगे चलकर उनके चीरहरण के समय पूरा हुआ। द्रौपदी का चीरहरण और श्रीकृष्ण की कृपा : जब कौरवों ने पांडवों को छल से जुए में हरा दिया, तब दुर्योधन ने क्रोध में आकर द्रौपदी को भरी सभा में खींचकर लाने का आदेश दिया। दुःशासन ने उनका अपमान करने का प्रयास किया और उनका वस्त्र खींचना शुरू कर दिया। उस समय द्रौपदी ने पहले अपने पतियों को देखा, फिर सभा में बैठे अन्य वरिष्ठ जनों से सहायता माँगी, लेकिन कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण को पुकारा और संपूर्ण समर्पण के साथ कहा, ' हे गोविंद ! हे माधव ! मेरी लाज अब केवल आपके हाथ में है। ' उनकी भक्ति और आर्त पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने अपनी कृपा से उनकी साड़ी को इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें नग्न नहीं कर सका और अंततः थककर गिर पड़ा। यह घटना दर्शाती है कि जब कोई भक्त संपूर्ण समर्पण के साथ श्रीकृष्ण को पुकारता है, तो वे स्वयं उसकी रक्षा के लिए आ जाते हैं।
* ए. एंड. एम.मीडिया शक्ति. प्रस्तुति.
गतांक से आगे : १. डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते.
वनवास के दौरान श्रीकृष्ण की सहायता : जब पांडव वनवास में थे, तब एक दिन महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित उनके आश्रम में आए। युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया, लेकिन उनके भोजन के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं था। उसी समय श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और उन्होंने द्रौपदी से भोजन माँगा। द्रौपदी ने दुखी होकर कहा, "हे केशव ! मेरे पास कुछ भी शेष नहीं है।" श्रीकृष्ण ने कहा, "मुझे तुम्हारे पात्र को देखने दो।" जब उन्होंने पात्र देखा, तो उसमें भोजन का एक छोटा सा अंश बचा हुआ था। श्रीकृष्ण ने उसे खाकर कहा, "अब संपूर्ण संसार तृप्त हो गया है।" उसी समय, महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य, जो पास में ही स्नान कर रहे थे, अचानक पेट भर जाने जैसा अनुभव करने लगे। वे समझ गए कि श्रीकृष्ण ने भोजन ग्रहण कर लिया है, जिससे वे भी संतुष्ट हो गए। वे बिना कुछ माँगे वहाँ से चले गए और पांडवों को संकट से मुक्ति मिली। महाभारत युद्ध और द्रौपदी की प्रार्थना : जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ, तो द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे उनके पतियों की रक्षा करें। श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि धर्म की विजय होगी और दुर्योधन जैसे अधर्मी नष्ट होंगे। युद्ध के अंत में, जब अश्वत्थामा ने कौरवों की हार के बदले में द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या कर दी, तब वह अत्यंत शोक में डूब गईं। श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी और कहा, "हे सखी! यह संसार नश्वर है। जो आया है, उसे एक दिन जाना ही है। लेकिन सत्य और धर्म कभी नष्ट नहीं होते। तुम्हारे पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए हैं और स्वर्ग में स्थान पा चुके हैं।" द्रौपदी का जीवन और श्रीकृष्ण की भक्ति : द्रौपदी ने अपने जीवन भर श्रीकृष्ण को सखा और आराध्य के रूप में माना। उनकी भक्ति में संपूर्ण समर्पण था, और श्रीकृष्ण ने भी उन्हें सदैव अपनी कृपा प्रदान की। महाभारत के अंत में, जब पांडव स्वर्गारोहण के लिए हिमालय की ओर गए, तब द्रौपदी सबसे पहले गिर गईं। युधिष्ठिर ने कहा कि यह इसलिए हुआ क्योंकि द्रौपदी ने पाँचों पांडवों में अर्जुन को सबसे अधिक प्रेम किया था। लेकिन यह भी सत्य है कि उनकी सबसे प्रिय मित्रता श्रीकृष्ण के साथ थी, जिन्होंने हर परिस्थिति में उनकी रक्षा की। द्रौपदी और श्रीकृष्ण की मित्रता प्रेम, विश्वास और भक्ति का अद्भुत उदाहरण है। यह दर्शाता है कि जब एक भक्त संपूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान को पुकारता है, तो वे स्वयं उसकी रक्षा के लिए आते हैं। द्रौपदी की कथा हमें सिखाती है कि चाहे संकट कितना भी बड़ा क्यों न हो, अगर भक्ति सच्ची हो और विश्वास अटूट हो, तो भगवान सदैव अपने भक्त की रक्षा करते हैं।
स्तंभ संपादन : शक्ति.सम्पादिका. डॉ.नूतन : लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड. पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति * मीडिया. शक्ति.सम्पादिका. डॉ.नूतन : लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड. पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति * मीडिया.
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