Radhika : Krishan : Darshan : Sampadkiya

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Shakti Project.
कृण्वन्तो विश्वमार्यम. 
In association with.
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Pratham Media.
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आवरण : पृष्ठ : ०
सम्पादकीय आलेख. 
@
सम्पादकीय आध्यात्मिक प्रभार व संरक्षण .
श्री गोविन्दजी. राधारमण.
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श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते.
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कार्यकारी संपादन : रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका.


फोर स्क्वायर होटल : रांची : समर्थित : आवरण पृष्ठ : विषय सूची : मार्स मिडिया ऐड : नई दिल्ली.
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विषय सूची : पृष्ठ : ०.
आवरण पृष्ठ : पृष्ठ : ०
विषय सूची : पृष्ठ : ०.
सुबह और शाम :आज : पृष्ठ :
सम्पादकीय गद्य आलेख : संग्रह : :आज : पृष्ठ : १.
टाइम्स मीडिया समर्थित सम्पादकीय आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : १ / १ .
एम. एस. मीडिया शक्ति* प्रस्तुति सम्पादकीय आलेख संग्रह पृष्ठ : १ / २
प्रथम मीडिया शक्ति * समर्थित प्रस्तुतिसम्पादकीय आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : १ / ३ .
   सम्पादकीय पद्य आलेख : संग्रह : :आज : पृष्ठ : २
टाइम्स मीडिया समर्थित सम्पादकीय पद्य आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : २ / १ .
एम. एस. मीडिया शक्ति* प्रस्तुति सम्पादकीय पद्यआलेख संग्रह पृष्ठ : १ / २.
प्रथम मीडिया शक्ति * समर्थित प्रस्तुति सम्पादकीय आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : १ / ३.  
सम्पादकीय : पृष्ठ : ३. 
ए एंड एम मीडिया. शक्ति. समर्थित सम्पादकीय गद्य आलेख : संग्रह : कल  : पृष्ठ : ४
ए एंड एम मीडिया. शक्ति. समर्थित सम्पादकीय गद्य आलेख : संग्रह : कल  : पृष्ठ : ४ / १.
ए एंड एम मीडिया. शक्ति. समर्थित सम्पादकीय पद्य आलेख : संग्रह : :आज : पृष्ठ : ४ /२.  
आपने कहा : ५ .
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सम्पादकीय आलेख लिंक. १ / १. : आज : पृष्ठ : १
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सम्पादकीय आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : १ / १ .
मुझे भी कुछ कहना है
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टाइम्स मीडिया समर्थित.

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नववर्ष विक्रम संवत शक्ति आलेख : अनंत मंगल शुभकामनाओं के साथ


माननीय. सत्य प्रकाश मिश्रा.
सत्यमेव ज्यते :
भा. पु. से.

संरक्षित.
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नववर्ष विक्रम संवत  २०८२. 
राधिकाकृष्णं सदा सहायते '
शक्ति दिवस,नव रात्रि प्रथम दिवस शैलपुत्री. 
के दिन सम्यक सोच ,वाणी ,कर्म के लिए नूतन राधिका कृष्ण शक्ति संकल्प भी लें.
नववर्ष विक्रम संवत शक्ति आलेख : ४ / ७
शक्ति.डॉ. सुनीता मधुप .
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नववर्ष विक्रम संवत. 
शक्ति : कोलाज : शक्ति समूह : नैना देवी डेस्क. नैनीताल. 
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विशेष आकर्षण : पढ़ें 
*अंत और प्रारब्ध : 
मेरे तो गिरधर गोपाल :
*राधिकाकृष्णं सदा सहायते'
* चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस :
*आस और विश्वास :  सर्व प्रथम और अग्रगामी  वैदिक सनातनी सभ्यता और संस्कृति
*
अंत और प्रारब्ध : विदा ले रहे हिन्दू वर्ष के अंतिम दिन मेरा मन वंदन स्वीकार करें ..क्षमा करें अगर आपके सम्मान,प्यारदेख रेख लगाव  में मुझसे हमसे कोई भूल हुई हो तो। 
कल  विक्रम संवत २०८१ का अंतिम दिन था । किंचित आप हमारे जीवन में सकारात्मक भावों की साझेदारी को स्मृत करना चाहता हूँ। 
आज से नववर्ष विक्रम संवत २०८२ प्रारंभ होने जा रहा है। हम अपनी वैदिक सनातनी सभ्यता और संस्कृति की पताका लिए हुए अंग्रेजी कैलेंडर से ५७ साल आगे है मैंने यह महसूस किया कि मुझे, हमारी सम्पादिका शक्ति समूह को  उन सभी लोगों का हार्दिक आभार और धन्यवाद करना चाहिए जिन्होंने मुझे,आपको,हमसबों को  संवत् २०८१ में मुस्कराने की वजह दी है। और आगे आने वाले नववर्ष २०८२ में भी ऐसे अवसर प्रदान करेंगे। सम्यक साथ निभाने के लिए सम्यकसोच ,वाणी ,कर्म के लिए नूतन शक्ति संकल्प भी लेंगे।  
मेरे तो गिरधर गोपाल : मेरे आराध्य देव मुरली धर माधव शक्ति राधिका के साथ सदैव रहें। श्री राधिका कृष्ण सदा सहायते का भाव बना रहें , मेरी यही दिव्य अभिलाषा है। 
' राधिकाकृष्णं सदा सहायते' का अर्थ है , ' भगवत शक्ति राधिका कृष्ण हमेशा सहायता करते हैं '. भगवान श्री कृष्ण से जुड़े कुछ और मंत्र और विचार: 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः' का जाप करने से जीवन के कष्ट दूर होते हैं और प्रभु श्री कृष्ण की कृपा मिलती है.
राधा चूँकि कृष्ण की आहलादिनी शक्ति हैं एक हैं इसलिए दोनों की सम्मिलित प्रेम ,कृपा, सहायता सदैव बनी रहें।
चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस : आज अंग्रेजी साल के अनुसार मार्च का दिवस ३० है। हिंदी महीना,तिथि ,दिन  के अनुसार चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस। नवरात्र, शक्ति का स्वरूप शैलपुत्री।  शक्ति का रंग लाल है। 
पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। प्रथम दिन की उपासना में साधक जन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं।
नव वर्ष की पहली सुबह शक्ति शैलपुत्री आपकी जिंदगी में नई खुशियां लेकर आए आपके सारे सपने पूरे हो आप हमेशा खुश रहे आप जो चाहे वह आपको मिले। इसी आशा के साथ हम सभी शक्ति समूह की तरफ़ से आपको हिन्दू नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। 
आप मेरे सर्वाधिक प्रिय जनों में से एक हैं।  उन्हीं में से एक आप हैं , इसलिए आपका हार्दिक आभार है । मैं कैसे भूल सकता हूँ ?
संभव है कि जाने - अनजाने में मेरे कर्म, वचन,स्वभाव से आप को दुख हुआ हो, इसलिए मैं आपसे क्षमा प्रार्थी हूं ।
आस और विश्वास : विश्वास है कि आगामी विक्रम सम्वत २०८२  में भी आप सबका मार्गदर्शन , स्नेह , सहयोग, प्यार , पूर्व की भांति मिलता रहेगा । सनातन हिन्दू नववर्ष  की आपको एवं आपके परिजनों को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ।
संदर्भित शक्ति लघु फिल्म.साभार 
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ऐ गिरि नंदनी विश्व की स्वामिनी : नव शक्ति दर्शन 
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सज्जा : संपादन : शक्ति. प्रस्तुति. 
 
स्तंभ सम्पादन : शक्ति. डॉ नूतन.नमिता. उत्तराखण्ड. देहरादून.  
शक्ति.रंजना.स्वतंत्र लेखिका. हिंदुस्तान. नई दिल्ली. तनु सर्वाधिकारी : बंगलोर 
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कृष्ण :  रुक्मिणी : दुर्वासा : श्राप और वरदान.
सम्पादकीय आलेख : १ : २.
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डॉ.मधुप.  

मेरे प्रिय देव नटवर ,कृष्ण की नगरी : द्वारका गुजरात में है। गुजरात मेरे नटवर पश्चिम में है ,कृष्ण की नगरी। मेरे प्रिय देव की स्थली द्वारकाधीश मंदिर, भ्रमण करना चाहूंगा। हिंदू पौराणिक कथाओं की यदि बात माने तो द्वारका का निर्माण कृष्ण ने समुद्र से प्राप्त भूमि के एक टुकड़े पर किया था। द्वारिका के अवशेष अभी भी अरब सागर के किनारे देखे जा सकते हैं।


ऋषि दुर्वासा : कृष्ण : फोटो : इंटरनेट से साभार. 

ऋषि दुर्वासा का द्वारिका आना : ऋषि दुर्वासा अपने क्रोध के लिए विशेषतः जाने जाते हैं। ऋषि का अपने क्रोध पर संयम नहीं रख पाना भी , मेरी समझ से परे हैं। महाभारत के अनुसार, ऋषि दुर्वासा एक बार कृष्ण और उनकी पत्नी रुक्मिणी से मिलने आए थे, या कहें द्वारिका से गुजर रहें थे । दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ थे। राह में उन्होंने अपने शिष्य श्री कृष्ण से मिलने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने शिष्यों को श्री कृष्ण को बुलाकर लाने को भेजा। उनके शिष्य ने द्वारका जाकर द्वारकाधीश को उनके गुरुदेव का सन्देश दिया।
ऋषि दुर्वासा की द्वारका नगरी चलने की अजीब शर्तें : सन्देश सुनते ही श्री कृष्ण नंगे पैर दौड़े-दौड़े अपने गुरु से मिलने आए और उनसे द्वारका नगरी चलने के लिए विनती की लेकिन दुर्वासा ऋषि जी ने चलने से इनकार कर दिया। ऋषि चाहते थे कि वे दोनों उन्हें अपने महल में ले जाएं, और मांग की कि वे घोड़ों की तरह उनके रथ को खींचें।
ऋषि दुर्वासा की द्वारका जाने की शर्त कृष्ण ने ऋषि से पुन: चलने के लिए आग्रह किया।
अंततः दुर्वासा ऋषि मान गये लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि वो जिस रथ से जायेंगे, उसे घोड़े नहीं खीचेंगें बल्कि एक तरफ से कृष्ण और एक तरफ से उनकी पत्नी रुक्मिणी खीचेंगी। श्री कृष्ण मान गये और वह दौड़ते हुए पत्नी रुक्मिणी के पास गए। रुक्मिणी को उन्होंने गुरुदेव दुर्वासा की शर्त बताई। रुक्मिणी मान गईं और फिर दोनों ऋषि के पास वापस आये और उनसे रथ पर बैठने की विनती की।
रुक्मिणी को श्री कृष्ण से १२ वर्ष अलग रहने का श्राप : अनहोनी होनी थी। आवेश , श्राप और वरदान का घटित होना निश्चित था। कृष्ण ने ऋषि दुर्वाषा की इच्छा का सम्मान करते हुए रुक्मिणी को रथ खींचने का संकेत दिया और दोनों उस रथ को खींचते-खींचते द्वारका तक ले जाने लगे।
बीच रास्ते में रुक्मिणी को प्यास लगी। श्रीकृष्ण ने उन्हें थोड़ा धैर्य रखने को कहा। जब रुक्मिणी नहीं मानी, तो श्री कृष्ण ने अपने अंगुठे से जमीन पर मारकर पानी की धारा निकाल दी। रुक्मिणी ने उस पानी से प्यास बुझाई और वह कृष्ण जी से भी आग्रह करने लगी कि वो भी पानी पी लें।
उनके आग्रह का मान रखते हुए श्री कृष्ण ने पानी पी लिया।
यह देख ऋषि दुर्वासा रुक्मिणी पर क्रोधित हो गये कि उनदोनों ने पानी पीकर प्यास बुझा ली। उनसे और उनके शिष्यों से नहीं पूछा गया ।ऋषि दुर्वासा का शीघ्र क्रोधित होना उनका सहज अवगुण था। कृष्ण की यह अवहेलना उनके मन को घर कर गयी थी । इसलिए, क्रोध में आकर उन्होंने रुक्मिणी को श्री कृष्ण से १२ वर्ष अलग रहने का श्राप दे दिया। यह श्राप बाद में पूरा भी हुआ।

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गतांक से आगे : पृष्ठ : १.
माधव के कोमल पैर : बहेलिए : तीर : कृष्ण का देह त्याग :
 डॉ.मधुप.  

* दुर्वासा की खीर खाने की इच्छा : और श्राप : फोटो : साभार


*पैर : तलवा हो न सका व्रज :
* माधव के कोमल पैर : बहेलिए : तीर : कृष्ण का देह त्याग :
यदु वंश के नाश की कहानी आहत गांधारी की कुपित वाणी
*
दुर्वासा की खीर खाने की इच्छा : श्राप पाने के बावजूद सहिष्णुता पूर्वक श्रीकृष्ण और रुक्मिणी उन्हें खींचते हुए द्वारका लेकर गये। जब गुरुदेव दुर्वासा द्वारका पहुंचे, तो कृष्ण जी ने उन्हें सम्मानपूर्वक सिंहासन पर बिठाया और उनका आदर-सत्कार किया।
भोजन में उन्होंने ५६ प्रकार का भोग बनवाया लेकिन जैसे ही वह व्यंजन गुरुदेव के पास पहुंचा, उन्होंने सारे व्यंजनों का तिरस्कार कर दिया। यहाँ भी श्रीकृष्ण और रुक्मिणी की परीक्षा ही होनी थी।
उन्होंने कहा - ' ये ऋषियों के खाने योग्य भोजन नहीं है'। यह देख कृष्ण जी ने उनसे उनकी इच्छा पूछी। ऋषि दुर्वासा ने कृष्ण जी को खीर बनवाने के लिए कहा। उनकी आज्ञा मानी गई और कृष्ण जी ने पाक शाला में खीर बनवाई। खीर अत्यंत स्वादिष्ट बना था।
लेकिन जब खीर से भरा पतीला दुर्वासा ऋषि के पास पहुंचा, तो पहले उन्होंने खीर का भोग लगाया और फिर उन्होंने बाकी खीर भगवान कृष्ण को खाने के लिए कहा‌।
भगवान कृष्ण ने उस पतीले से थोड़ी सी खीर खाई। ऋषि दुर्वासा ने बाकी बची खीर भगवान कृष्ण को अपने शरीर पर लगाने की आज्ञा दी। आज्ञा पाकर श्री कृष्ण ने खीर को अपने पूरे शरीर पर लगाना शुरू कर दिया।
पैर : तलवा हो न सका व्रज : उन्होंने पूरे शरीर पर खीर लगा ली लेकिन जब पैर पर लगाने की बारी आई, तो उन्होंने अपने पैरों पर खीर लगाने के लिए मना कर दिया।
दुर्वासा इस बात से पुनः क्रोधित हो गये। इसपर श्री कृष्ण ने कहा - ‘गुरुदेव ! यह खीर आपका भोग-प्रसाद है, मैं इस भोग को अपने पैरों पर कैसे लगा सकता हूं' ? मैं इसका क्योंकर अनादर कर सकता हूँ ?
भगवान कृष्ण की मृत्यु का कारण : ऋषि दुर्वासा तत्क्षण कृष्ण जी बातों को सुन कर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा - ' माधव ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। तुम हमारी ली गयी हर परीक्षा में सफल रहे। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं तुमने जहां - जहां खीर लगाई है, तुम्हारे शरीर का वो सारा हिस्सा वज्र के समान हो जायेगा। लेकिन माधव तुमने खीर अपने तलवों पर नहीं लगाई है, इसलिए यह स्थान ही तुम्हारी मौत का कारण बनेगा। यह कोमल रह जायेगा।
माधव के कोमल पैर : बहेलिए : तीर : कृष्ण का देह त्याग : नियति को कौन रोक सकता है ? अंततः ऋषि दुर्वासा की बात अक्षरशः सच हुई। एक बार कृष्ण झाड़ियों में सोये हुए थे और उनके पैर के पास उनका एक कमल चमक रहा था। दूर कहीं एक बहेलिए ने उनके चमकते कमल को भ्रम वश अपना शिकार समझ तीर चला दिया, जो सीधे श्री कृष्ण के पैर पर लगी और उनकी मृत्यु हो गई। और इस तरह प्रभु देह त्याग कर बैकुंठ धाम गए।
आहत गांधारी के श्राप भी हुए पूर्ण : हमें यह स्मरण रखना चाहिए भगवन कौरवों के समग्र अंत के बाद पुत्र शोक में आहत गांधारी से भी शापित हुए थे ,जिसमें उन्हें भी यदु वंश के नाश होने की बात भी स्मृत थी। वे भूले नहीं थे।
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दृश्यम : अद्वितीय. 
माधव ( श्री लक्ष्मीनारायण ) का अंत : शक्ति संतुलन. 


प्रस्तुति : डॉ सुनीता शक्ति* प्रिया 
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आलेख : डॉ.मधुप. 
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स्तंभ सम्पादित 
 शक्ति.डॉ.सुनीता तनुश्री सर्वाधिकारी
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जीने की राह : क्या सत्य और धर्म की रक्षा के लिए मौन रहना उचित है..? 
सम्पादकीय आलेख : १ : १ .
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महाभारत : दुःशासन : द्रौपदी : चीर हरण : प्रसंग. 


डॉ.मधुप.
 

सूरज : काले बादल : उस दिन भी आकाश में अपनी दिनचर्या के लिए सूरज अपनी वैसी ही ऊर्जा व शक्ति के साथ अभ्युदित हुआ था । दोपहर होते होते अकस्मात कहीं से असत्य के घने बादल आ जाते है । अपरीक्षित सत्य को अपने घेरे में लेने की भरसक कोशिश भी करते हैं। तत्क्षण सफल भी हो जाते हैं । कुछ पल के बाद सूरज के गोले में ध्यान पूर्वक देखने से कुछ काले धब्बें नजर भी आने  लगते है.. अंतर मन पूछता है अपनी आत्म शक्ति से इस प्रकाश युक्त गोले में काले अंधेरें क्यों ...? 
यह कैसे हुआ...बताएं ...?  
पांचाली 
महाभारत का प्रसंग : श्री कृष्ण सदा सहायते : तभी इससे हटकर अकस्मात महाभारत का प्रसंग भी याद आ जाता है , कौरवों की भरी सभा में पांचाली की लाज की रक्षा करने वाले  माधव भी अच्छी तरह से जान रहे थे कि दुर्योधन और दुःशासन के कुकृत्य के विरुद्ध , धृतराष्ट्र , संजय , गुरु द्रोण , और भीष्म पितामह की अंतर वेदना क्या हैं ? लेकिन वो मौन रहें। प्रश्न है पितामह क्यों मूक रहें। 
क्योंकि वे कौरवों का अन्न खाकर उनका ऋणी थे और उनका विरोध करना उन्हें उचित नहीं लगा था , साथ ही वे अपने हस्तिनापुर के राजकीय कर्तव्य के प्रति बंधे हुए थे इसलिए महाभारत में, द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह चुप रहे। मौन कितना विध्वंसक सिद्ध हुआ ?
यदि धर्म की रक्षार्थ पितामह बोल उठते तो किंचित महाभारत टल भी सकता था।
महाभारत में, द्रौपदी का चीरहरण एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसमें पांडवों के जुए में हारने के बाद, दुर्योधन के आदेश पर दुःशासन ने द्रौपदी को कौरवों की सभा में खींचा और उसका अपमान किया, लेकिन द्रौपदी के वस्त्र कभी नग्न नहीं हुए। क्योंकि धर्म, संरक्षण की माधव चेष्टा थी अधर्म और अन्याय के विरुद्ध। और अन्ततः जिसे स्थापित ही होना था। श्री कृष्ण सदा सहायते के निमित हुआ भी
द्रौपदी का ऋण : यदि माधव नहीं होते तो क्या होता ? कभी सुदर्शन चक्र ग्रहण करती माधव की कटी उंगली में द्रौपदी द्वारा की गई सेवा शुश्रूषा के निमित लपेटी गई चीर का ऋण किशन ने पांचाली के चीर को अनंत कर चुकाया था। और उनकी रक्षा की। यह दायित्व तो उपस्थित सभासदों का होना चाहिए था, जो नहीं हुआ।  
अंतर्मन में  सदैव जागृत रही आप त्रिशक्तियाँ बताएं क्या वो मौन उचित था ? 
क्या संसार के सत्य की मर्यादा के लिए शब्दों की उद्घोषणाएं होनी चाहिए थी ..या नहीं..? खड्ग उठने चाहिए थे या नहीं ? 
आत्म शक्तियां :आत्म द्वन्द :अपने भीतर की आत्म शक्तियां कहती है..शब्द होने चाहिए थे। स्वयं का विरोध दर्ज होना ही चाहिए था। 
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शॉर्ट रील : साभार : चीर हरण प्रसंग.
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पांचाली के रक्षक थे माधव । योगी राज कृष्ण सदैव धर्म और सत्य के साथ ही अकेले ही खड़े रहें। पांचाली उन्हें ह्रदय से अत्यंत स्नेह करती थी।  इसलिए उन्हें प्यार से सखि कहती थी। 
अंतर मन में व्याप्त आत्म शक्तियां  जो सर्वोपरि त्रिशक्तियाँ है  जानती है  कुछ पल के लिए असत्य के घने अंधियारे में सत्य  का सूरज ढक भी जाता है ...लेकिन सूरज अंततः उस ऊर्जा के साथ आकाश में उग आता है । ...
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
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कृष्ण की वंशावली.
 
सूरसेन के  पुत्र, वासुदेव तथा  बलराम जी है। बलराम जी के पुत्र  निषस्थ उल्मुख है। दो पुत्री, कुन्ती , सुतसुभा थी। कुन्ती, के पुत्र कर्ण, युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन थे। श्री कृष्ण जी की पत्नियां रुक्मिणी ,सत्यभामा : जाम्वंती थी। रुक्मिणी से  :  प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, चारुगर्भ, सुदेष्ण ,दुम , चारुगुप्त, चारुविन्द,चारुणवाहु ,सुषेण, सत्यभामा से : भानु, भीमरथ, क्षुप, रोहित ,दीप्तिमान ,ताम्रजाक्ष आदि जाम्वंती : से साम्ब ,मित्रवान, मित्रविंद ,मित्रवाहु ,सुनिथ आदि संतानें थी। 

कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 


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एम. एस. मीडिया शक्ति* प्रस्तुति : पृष्ठ : १ / २  
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 डॉ. आर के दुबे.


लेखक कवि विचारक. 
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सम्पादकीय : गद्य  : आलेख :  आज :  पृष्ठ : १ / २  
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बगरो बसंत की अद्भुत महिमा है । भगवान राम को जन्म लेना था तो इसी को चुना और भगवान कृष्ण तो गीता में खुद को ही बसंत बताते है - ऋतूनां कुसुमाकर: । इसीलिए इसे ऋतुराज कहते हैं । कई पौराणिक सुघटनाओं को इसने अपने अंक में जगह दी है । तारकासुर के बध की खुशी हुई तो होलिका का दहन भी इसी ऋतु में हुआ और परम भागवत प्रह्लाद की अग्नि से रक्षा हो सकी। भगवान शिव ने तीसरी आंख खोली और इसी बसंत में कामदेव खाक हो गए । बेचारी रति की गुहार से भोलेनाथ पिघले और काम को अशरीरी जीवन का दान मिला ।
बसंत ने बहुत सी खुशियाँ समाज को दी हैं और उसका जो प्राकृति प्रदत्त स्वाभाविक उद्दीपन है, वह तो  है ही ।

जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया कि 'ऋतूनां कुसुमाकर:' तो हम क्यों न अनुभव करें कि बसंत के हर पल में हम श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहे हैं । यह ऋतु हमे आनंद में जीने का सुअवसर देती है; क्योंकि वे स्वयं सच्चिदानंद हैं । आनंद उनका सहज स्वरूप है । श्रीकृष्ण का पूरा जीवन प्रेम से लबालब है । जशोदा-नंद, देवकी-वासुदेव, ऋषि-महर्षि, देव-दनुज, गोपी-गोप, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या कहें कि पूरी प्रकृति द्वापर काल मे प्रेम से सराबोर रही है । हमारे पूर्वजों ने भी उनका स्मरण करते सद्गति प्राप्त की और आज हम भी उन्हें हर पल याद करने का येनकेनप्रकारेण यत्न करते हैं और यही हमारा कर्तव्य भी है - 'महाजनों येन गता स हि पंथा' । 
भक्त कवियों की दृष्टि अतिसूक्ष्म और पवित्र होती है । आप भी कवि की नजर से देखिए कि कवि पद्माकर क्या देख रहे हैं :
फ़ाग की भीर अभीरन त्यों, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी,
भायी करी मन की पद्माकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ।
छीनि पीताम्बर कामरिया, सो बिदा दई मीजि कपोरन रोरी,
नैन नचाय कही मुसकाय,लला फिर आइयो खेलन होरी ।।




 श्राप जो भगवन श्री कृष्ण को  भोगना पड़ा  :  पृष्ठ : १ / २ / २  

जगत के पालनहार श्री विष्णु ने अपने आठवें अवतार में द्वापर में श्री कृष्ण के रूप में लिया। इस युग की विशेषता रही उनकी लीलाएं। भगवान श्री कृष्ण ने धर्म स्थापना के मार्ग में कई श्रापों का भोग किया। यहां हम जाने श्री कृष्ण को मिले श्रापों के बारे में :-
पहला श्राप : भगवान श्री कृष्ण को बाल्यकाल में ही पहला श्राप मिला था। एक बार ऋषि दुर्वासा गोकुल के बाहर तपस्या में लीन थे। उस समय अपनी बाल लीलाओं और शरारतों से श्री कृष्ण ने ऋषि की साधना भंग कर दी। क्रोध में ऋषि ने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि जिस मां के प्यार के कारण वे इतना शरारती है,उन से उन्हें कई वर्षों तक दूर रहना होगा। 
दूसरा श्राप : कौरवों की माता गांधारी ने श्री कृष्ण को दूसरा श्राप दिया था। महाभारत युद्ध के बाद कौरव वंश के बधुओं के विलाप सुना तो उन्होंने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि तेरे यदुवंश का नाश हो जाएगा।
तीसरा श्राप : एक बार भगवान श्री कृष्ण अपने गुरु संदीपनी मुनि के पुत्र को यमराज के पास जीवित लेने गए थे। दोनों में युद्ध हुआ।तब यमराज ने श्री कृष्ण को कहा कि वह उनके प्राण हरने से पहले ही वे खुद आ जाएंगे। और, वैसा ही हुआ भी। तो, धर्म स्थापना के क्रम में भगवान श्री कृष्ण को भी ये श्राप झेलने पड़े थे।
जय श्री कृष्ण
एक मान्यता के अनुसार सतयुग में राजा रैवत समुद्र के बीच भूमी पर कुश आसन पर कई यज्ञ किये थे। इसी जगह कुश नाम का राक्षस बहुत उपद्रव फैलाया था। तब त्रिविक्रम भगवान ने उसे भूमि में गाढ़ कर उसके उपर उसी के अराध्य देव कुशेश्वर की लिंग मूर्ती स्थापित कर दी।तब कुश के अनुनय-विनय पर उसे वरदान दिया कि द्वारका आने वाला व्यक्ति कुशेश्वर के दर्शन नहीं करेगा तो उसका आधा पुण्य उस राक्षस को मिलेगा।
३६ वर्ष तक श्री कृष्ण ने द्वारका में शासन किया। उनके वैकुंठ प्रस्थान के बाद द्वारका नगरी समुद्र में डुब गयी। केवल श्री कृष्ण का मंदिर ही बचा रहा। श्री कृष्ण के द्वारका नगरी के अवशेष आज भी समुद्र के गर्भ में मौजूद हैं।

कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 
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श्री कृष्णः एक परिचय : बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : पृष्ठ : १ / २ / १  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.  
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फोटो : श्याम तेरी बंसी को बजने से काम 

बहुपत्नीत्व के स्वामी : श्री कृष्ण : एक पत्नी का मन रखना कठिन होता है जब की श्री कृष्ण ने तो १६००८ पत्नियों को संतुष्ट रखा। नारदजी ने उनके बीच कलह उत्पन्न करने का प्रयत्न किया; परन्तु वह प्रयत्न भी असफल रहा। इसलिए श्री कृष्ण एक पति रुप में भी सफल रहे।
श्री कृष्ण एक अनुकरणीय पिता का उदाहरण थे। अपनी संतान, पोता-पोती इत्यादि के अनुचित आचरण के कारण श्री कृष्ण ने यादवी युद्ध कर स्वयं ही उन्हें मार दिया। अवतार एवं देवताओं में अपना कुल क्षय करने वाले उदाहरण है।
श्री कृष्ण  : द्वारिकाधीश : पांडवों  के सखा : श्री कृष्ण द्वारिकाधीश थे। पर उनके बचपन के मित्र सुदामा जब उनके पास सहायतार्थ आते हैं तो श्री कृष्ण ने उनका बड़े प्रेम एवं उत्साह से स्वागत किया। पांडवो का सखा होने के नाते वे उनकी सदैव सहायता करते थे। पांडवों  का श्री कृष्ण के प्रति सख्य भक्ति थी।
कला मर्मज्ञ श्री कृष्ण  :  बांसुरी बादक : नृत्य संगीत इत्यादि कलाओं के भोक्ता एवं मर्मज्ञ थे। उनके वासुरी वादन एवं रास क्रीड़ा प्रसिद्ध है। श्री कृष्ण का वासुरी वादन सुन पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते थे।
भगवान कृष्ण की बांसुरी का नाम महानंदा या सम्मोहिनी था. यह बांसुरी बहुत लंबी थी. कृष्ण को बांसुरी बजाने का बहुत शौक था. कृष्ण की बांसुरी से जुड़ी कुछ और बातें :
मान्यता है कि भगवान शिव ने महर्षि दधीची की हड्डियों से यह बांसुरी बनाई थी और इसे कृष्ण को उपहार में दिया था. 
कृष्ण की बांसुरी को प्रेम, खुशी, और आकर्षण का प्रतीक : माना जाता है उनकी बांसुरी की धुन सुनकर पूरा विश्व भक्तिमय हो जाता था. कृष्ण गोपियों को आकर्षित करने के लिए वेणु बांसुरी का इस्तेमाल करते थे. ज्ञात हो कृष्ण ने राधा के वियोग में प्रेम के प्रतीक बांसुरी को तोड़कर फेंक दिया था. 
कृष्ण की टूटी हुई बांसुरी का भाग्य एक रहस्य ही बना हुआ है


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राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है.  पृष्ठ : १ / २ / ०  
लेखक : डॉ. आर के दुबे.  

राधा कौन ? यह जिज्ञासा हमारे भीतर होती है। 
मित्रों जब श्री कृष्ण की चर्चा होती है तब राधा जी का नाम जरूर आता है। राधा जिससे श्री कृष्ण बहुत प्रेम करते उनसे श्री कृष्ण का विवाह नहीं होता है। फिर भी जहां कृष्ण की चर्चा होती है राधा जी की चर्चा हुए बिन कृष्ण चर्चा पुरी नहीं होती।तब अनायास ही पश्न सम्मुख खड़ा होता है कि राधा कौन है?
राधा का स्वरूप परम दुरूह है। किशोरी जी ही राधा है। राधा का जैविक परिचय है कि वो किर्ति और वृषभानु की पुत्री है। उनकी शादी रायाण से हुई।
राधा का तात्विक परिचय है कि राधा कृष्ण की आनंद है।वो कृष्ण की ही अहलादिनी शक्ति स्वरूप है। रायाण से जिस राधा की शादी हुई वो तो छाया राधा से हुई। तात्विक राधा तो अन्तर्ध्यान हो गई थी। राधा की मृत्यु भी, कहते हैं,कि कृष्ण के बंसी बजाने पर राधा कृष्ण में ही विलीन हो गयी थी।
 समस्त वेद पुराण उनके गुणों से भरा पड़ा है। अहलादिनी भगवान को भी रसास्वादन कराती हैं। सच्चिदानंद श्रीकृष्ण की आनंद ही राधा है।महाभवस्वरुपिणी है। राधा पूर्ण शक्ति है कृष्ण पूर्ण शक्तिमान। कृष्ण सागर है तो राधा तरंग, कृष्ण फूल तो राधा सुगंध और कृष्ण अग्नि तो राधा तेज़ हैं। कृष्ण जो सब को आकर्षित करते हैं पर उनको भी आकर्षित करती है राधा। राधा अगर धन है तो कृष्ण तिजोरी।परमधन राधा जी है। प्रेम, समर्पण जहां है वहां राधा तत्व है।जनम लियो मोहन हित श्यामा। राधा नित्य है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नित्य गोलोक धाम में श्रीकृष्ण एक से दो होते हैं। राधा का उनके बाम अंग से प्राकट्य होता है।
और, राधा जी से ही उनकी आठों  सखियां -ललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, श्री रंगदेवी तुंगविद्या, चंपकलता और सुदेवी का प्रकाट्य है।


कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रीता रानी.कवयित्री. स्वतंत्र लेखिका. 
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सम्पादकीय आलेख संग्रह : आज : पृष्ठ : १ / ३ .
मुझे भी कुछ कहना है
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प्रथम मीडिया शक्ति * समर्थित प्रस्तुति. 

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हम और ईश्वरीय  सत्ता के सम्बन्ध : सम्पादकीय आलेख : १ / ३   
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लेखक कवि विचारक. 



अरूण कुमार सिन्हा.
सेवा निवृत अधिकारी 
बिहार लोक सेवा आयोग 

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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम : सर्वयुग पुरुष :आलेख :  १ / ३ /५  
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अरूण कुमार सिन्हा.

* राम को समझो कृष्ण को जानो 
* राम ने आदर्श सिखलाया 
* कृष्ण ने सतत कर्म का पाठ बतलाया 

सच कहें जिसने त्रेता युग के हरि के अवतार श्री राम कृष्ण के बारे में जान लिया,समझ लिया उसने जीवन का सही मार्ग का चयन कर लिया। श्री कृष्ण की आवश्यकता, या यूं कहें कि श्री कृष्ण के जीवन से सीख, हमें जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन और प्रेरणा प्रदान करती है, चाहे वह कर्म, कर्तव्य, प्रेम, या ज्ञान की बात हो वही राम जीवन के आदर्शों को सिखलाते हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने व्यवहार वाद भी सिखलाया। बुरे के लिए बुरे बनें। अच्छे के लिए अच्छे बनें। श्री कृष्ण सदा सहायते ही बने। हमारे लिए बहुत कुछ है कि हम कैसे धर्म ,न्याय की संस्थापना के लिए निरंतर प्रयास रत रहें।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम : आज भगवान श्री राम की जयन्ती है जिसे वैश्विक स्तर पर इनके भक्त, श्रद्धावान और अनुगामी एक उत्सव, त्योहार और पर्व के रुप में मनाते हैं। श्री राम सिर्फ एक युग के ही महापुरुष और विभूति नहीं थे, अवतारी ही नहीं थे बल्कि अपने कृत्यों से अकाल पुरुष, सर्वयुग पुरुष,सार्वकालिक और सार्वभौमिक बन गए। उन्होंने समस्त समाज और आधारभूत संरचनाओं के लिए जिन मान्यताओं और मापदण्डों की स्थापना की,उनसे वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गए। वे अवतारी होने के कारण या हिन्दू समाज के आराध्य होने के कारण नहीं बल्कि हर पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं के पालन और स्थापना करने के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन सके।
जयन्ती मनाने  के पीछे महती उद्देश्य  : आज सिर्फ एशियाई देशों में ही नहीं वरन्  वैश्विक स्तर इनकी आराधना साधना और पूजा की जाती है। यहां यह उल्लेखनीय हो जाता है कि आखिर जयन्ती मनाने  के पीछे महती उद्देश्य क्या है, जयन्ती मनाने के पीछे वैश्विक समाज को स्मारित कराना होता है कि आज मानव समाज में जो इतनी विकृतियां आयी हैं, रिश्ते अमर्यादित हुए हैं, चहुंओर हिंसा, रक्तपात, शोषण दोहन आदि जो बढ़े हैं उनके पीछे एक ही कारण है कि हमारा समाज स्थापित मर्यादाओं के मापदण्डों को विस्मृत कर गया है। पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा नष्टप्राय हो चुकी है, इसलिए आज वैश्विक स्तर शत्रुओं के साथ भी मर्यादित व्यवहार : आज भगवान श्री राम की उपयोगिता, उपादेयता और प्रासंगिकता है। माता-पिता, भाई, पत्नी, मित्र, सहयोगी, गुरु,सेवक, भक्त,साधक,आराधक यहां तक कि शत्रुओं के साथ भी उन्होंने मर्यादित व्यवहार किया जिनके सम्मान, पुनर्मूल्यांकन और अनुपालन की आज भी जरूरत है और कल भी रहेगी। 
सत्य वही है जो शाश्वत और सनातन है, जिसके गुणधर्म अपरिवर्तनशील हैं, सार्वभौमिक और सार्वकालिक है और ऐसी ही मर्यादा भगवान श्री राम की है जो किसी मत,पंथ, विश्वास, विचार, सिद्धान्त, सम्प्रदाय आदि से बंधा नहीं बल्कि समस्त मानव समुदाय के लिए प्रासंगिक और उपयोगी है, जिसके सहज और सरल अवलोकन की जरूरत है और समाज को हर अपराध, प्रदूषण, अत्याचार, अनाचार, अपराध आदि से सुरक्षित करने के लिए सबको श्री राम को समझने और अपनाने की जरूरत है,जैसे नीति शास्त्र और आचार शास्त्र होते हैं वैसे ही श्री राम व्यवहार और आचरण हैं जिनका अनुसरण करना जीवन के मोल और मूल्य हैं जिन्हें किसी मत,पंथ, विश्वास, विचार, सम्प्रदाय आदि के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए जैसे डाक्टर की जाति और मत आदि हो सकते हैं पर औषधि की कोई जाति,मत,पंथ आदि नहीं होते वही औषधि श्री राम हैं। समस्त मानव समाज को श्री राम जन्मोत्सव की हार्दिक बधाईयां एवं मंगलकामनाऍं

पृष्ठ सज्जा संपादन. शक्ति. डॉ. सुनीता मधुप.  
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सत्य वह नहीं जो हम देखते है : सम्पादकीय : आलेख : १ / ३ /४ 
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अरूण कुमार सिन्हा.

सत्य वह नहीं  : मनन चिन्तन और विश्लेषण  की आवश्यकता : सत्य वह नहीं जो हम पढ़ते,लिखते, सुनते या बोलते हैं क्योंकि सत्य तो वही है जो सबके लिए ग्राह्य हो और जिसका बोध निरपेक्ष हो।
हर व्यक्ति अपने भोगे हुए यथार्थ, पढ़े हुए विषय,देखे हुए दृश्य और सुने हुए विषय को ही समझता है जो प्रायः सापेक्ष ही होता है तब आप कैसे समझेंगे कि यही सत्य है तो आपको उन तथ्यों का मनन चिन्तन और विश्लेषण करना होगा और उनकी तह तक जाना होगा और तभी आप सत्य को जान पाएंगे।
कोई व्यक्ति यह कह दे कि मैंने मीठा करैला खाया है, कोई कह दे कि मैंने जो गन्ना खाया वह खट्टा था। आपको सहज ही विस्मय होगा कि करैला न तो मीठा हो सकता है और न गन्ना खट्टा हो सकता है चूंकि आपने भी उनके स्वाद चखे हैं और आपको भी उनके स्वाद की पूर्वानुभूति रही है तो दूसरे ने कहा और आपने भी सहमति दी, निस्संदेह वह सत्य है। 
इस तरह कोई कथन, कोई दृश्य, कोई श्रव्य कथन सिर्फ पहले पर निर्भर नहीं करता बल्कि आपका साक्षात्कार जब उसे अन्दर से स्वीकार कर लेता है और उसके समर्थन में अन्य साक्ष्य भी होते हैं तो उसका भाव सापेक्ष से निरपेक्ष हो जाता है।
सत्य का स्वरूप : निर्विरोध निर्विवाद सार्वभौमिक और सार्वकालिक : सत्य का स्वरूप निर्विरोध निर्विवाद सार्वभौमिक और सार्वकालिक होता है और जिनमें ये विशिष्टताएं नहीं होती वह निरपेक्ष सत्य नहीं होता। संसार के समस्त मत,पंथ, विश्वास, विचार , सम्प्रदाय आदि और उनके नीति शास्त्र इससे सहमत हैं कि मनुष्य का जन्म सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय के लिए हुआ है। मनुष्य को सबके हित और मंगल की कामना करनी चाहिए,यह सत्य है।


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सौन्दर्य और हमारी दृष्टि सम्पादकीय आलेख : १ / ३ /२ 
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सौन्दर्य और हमारी दृष्टि. : अलग अलग :

सौन्दर्य और हमारी दृष्टि : अलग अलग : इस ब्रह्माण्ड में सौन्दर्य की कोई कमी नहीं, सर्वत्र सुन्दरता बिखरी हुयी है पर सबके अवलोकन के दृष्टिकोण अलग-अलग होते हैं। जिस व्यक्ति के जो भाव विचार होते हैं उसी दृष्टिकोण से वह सौन्दर्य की तलाश करता है। किसी को सुन्दर पुरुष या स्त्री में सौन्दर्य नजर आता है तो किसी को खुबसूरत फूल या प्राकृतिक आधारभूत संरचनाओं में सौन्दर्य नजर आता है आता है तो किसी को सुन्दर भवन आकर्षित करता है। 
कोई सुन्दर गीत संगीत को सुनकर भाव विभोर हो जाता है तो कोई सुन्दर साहित्य,लेखन, मूर्ति कला, वास्तुकला, संभाषण आदि में सौन्दर्य की तलाश करता है और अपने दृष्टिकोण से उसे पाकर खुश हो जाता है, संगीत के बारे में तो कहा भी गया है कि जो हृदय संगीत की लहरों से विचलित न हो वह आदमी हृदय विहीन होता है,वह आदमी हो ही नहीं सकता है। 

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श्री कृष्ण के दर्शन से ज्यादा सुन्दर क्या होगा : ? रुक्मिणी राधा मीरा 
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सम्पादकीय आलेख : १ / ३ /१ 

श्री कृष्ण के दर्शन से ज्यादा सुन्दर क्या होगा : रुक्मिणी. राधा. मीरा. : कोई रुक्मिणी, राधा , मीरा और गोपियों से पुछे कि सौन्दर्य क्या है ? सब जानते है उनका जवाब क्या होगा ?  कोई मीरा, रसखान ,बिहारी  या सूरदास से पुछे कि सौन्दर्य क्या है,तो एक ही जवाब होगा,श्री कृष्ण के दर्शन से ज्यादा सुन्दर क्या होगा ? कोई हनुमान जी से पुछे कि इस ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर क्या है तो जवाब होगा श्री राम,इस तरह सौन्दर्य तो एक ही है जो समस्त पदार्थों में समाहित है पर नजरें तो अनन्त हैं इसलिए सौन्दर्य के स्वरूप बदल जाते हैं, पर सेनेका कहता है कि इस दुनिया में खुबसूरत नजारों की कमी नहीं है परन्तु सबसे खूबसूरत नजारा किसी आदमी को एकदम विपरीत परिस्थितियों में न हार मानते हुए जूझते हुए देखना है,आप इससे कितना सहमत हैं। 
कृष्ण के दर्शन व उनके व्यक्तित्व में अटूट विश्वास रखने वाले अनन्य भक्त भी कहते है ,
'हे माधव ! यदि आप मेरे जीवन के सारथी हो जाए तो मैं किसी ऐसे नूतन विश्व का निर्माण कर ही लूंगा
जिसमें मात्र अनंत ( श्री लक्ष्मीनारायण ) शिव ( कल्याणकारी ) शक्तियाँ ही होगी
होलिका की अग्नि में मेरे अंतर्मन की चिर ईर्ष्या, पीड़ा ,द्वेष ,और बुराई जलकर भस्म हो.....
हे : परमेश्वर : आदि शक्ति : जीवन के इस अंतहीन सफ़र में तू मुझे मात्र ' सम्यक साथ ' प्रदान कर जिससे मेरी ' दृष्टि ' , ' सोच ' ,' वाणी ', और ' कर्म ' परमार्जित हो सके...'
सौन्दर्य अध्यात्म की दुनिया में :  अध्यात्म की दुनिया में कोई अध्यात्म की दुनिया में ही मगन हो जाता है और सारा संसार उसे रसहीन और सौन्दर्य विहीन नजर आने लगता है। कोई बच्चे के सहज मुस्कान और चंचलता में सौन्दर्य देखता है और उसकी सहजता और सरलता में खो जाता है। कभी कभी तो बढ़िया भोजन में भी सबकुछ नजर आने लगता है या एक भूखे को महज रोटी में अप्रतिम सौन्दर्य नजर आता है जो स्वाभाविक ही प्रतीत होता है,कहते हैं कि एक भरे पेट वाले शायर या कवि को चांद में अपनी प्रेयसी का चेहरा नजर आता है तो एक भूखे को गोल चांद में भी गोल रोटी ही नजर आती है। 
जिन्दगी एक अनवरत संघर्षों की गाथा है :  हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि जितनी नजरें उतनी खुबसूरती नजर आती है। पर जिन्दगी जो एक अनवरत संघर्षों की गाथा है जिसमें कोई संसाधनपूर्णता में संघर्ष करता है तो कोई संसाधनहीनता में भी संघर्ष करता नजर आता है। कविवर निराला जी सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती, संघर्ष करती औरत में जो सौन्दर्य नजर आता है,वह अप्रतिम सौन्दर्य है। 

स्तंभ संपादन : सौन्दर्य और हमारी दृष्टि. : अलग अलग :
शक्ति.सम्पादिका. डॉ. नूतन
लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड  

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जगत मिथ्या , ब्रह्म सत्य  : सम्पादकीय आलेख : १ / ३ / ० 
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जगत मिथ्या , ब्रह्म सत्य  : वैदिक काल की मानवीय चेतना आमोद प्रमोद और यज्ञादि से जुड़ी हुयी थी जो जीवन के अंत पर कभी चिन्तन नहीं करती थी परन्तु चेतना के बौद्धिक विकास होने के साथ साथ मनुष्य ने यह सोचना शुरू किया कि आखिर जीवन का अर्थ क्या है,अंत होने के बाद क्या होता है, सृजन और विनाश का क्या सम्बन्ध है, क्या कोई अलौकिक सत्ता मनुष्य को और समस्त प्राकृतिक व्यवस्था को नियंत्रित और संचालित करती है और फलस्वरूप वेदांत या औपनिषदिक दर्शन और चिन्तन का प्रादुर्भाव होता है। ब्रह्म की अवधारणा को धर्म और कर्मकाण्ड के नजरिए से उठकर मुक्ति दाता के रुप में देखा जाने लगा।
यह औपनिषदिक दर्शन का ही प्रभाव था कि आदिगुरु शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन की घोषणा करते हुए कह दिया कि,जगत मिथ्या , ब्रह्म सत्य  अहं ब्रह्मास्मिऔर फिर ईश्वरीय सत्ता से समन्वय और तादात्म्य स्थापित करने के मार्ग की खोज होने लगी।
गीता : ज्ञान मार्ग , भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग : गीता ने ज्ञान मार्ग , भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग का संदेश दिया। नवधा भक्ति की अवधारणा विकसित हुई पर ये बात स्पष्ट नहीं हो पा रही थी कि निष्ठा समर्पण का बोध कैसे हो तो कालान्तर में दो मार्ग यथा,वानरी मार्ग और मार्जारी मार्ग के मार्ग की खोज की गई और इसे सारे मार्गदर्शनों से भिन्न माना गया कि इनमें किसी कर्मकाण्ड दर्शन चिन्तन शोध खोज और योग की जरूरत नहीं थी। यह सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय का मार्ग था। जीवन दर्शन और व्यवहार दोनों है। ईश्वर की खोज आर्त ज्ञानी भक्त या साधक करते हैं, वेदों उपनिषदों और अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके उस सत्ता की खोज करते हैं परन्तु जीवन सहजता और सरलता से कर्तव्य पालन करते हुए ईश्वरीय कृपा से सुरक्षित गुजर जाए उसका यही मार्ग सहज पाया गया।
अब सवाल उठता है कि वानरी मार्ग और मार्जारी मार्ग है क्या तो इसे समझना भी बड़ा सरल है। वानरी का अर्थ मादा वानर है जो यहां ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक है। आपने देखा होगा कि वानरी के पेट से उसका बच्चा एकदम से पुरे विश्वास के साथ चिपका होता है और वानरी कितना भी उछल कूद करती रहे, वह नहीं गिरता है। एक प्रकृति यह है कि आप ईश्वर से उसी तरह चिपक जाइए और काल कितना भी उछल कूद करे आप उनकी सुरक्षा चक्र से सुरक्षित रहते हैं।
पूर्ण आस्था श्रद्धा और विश्वास  : अब मार्जारी मार्ग को समझने की कोशिश करें,मार्जारी का अर्थ बिल्ली होता है और बिल्ली जब अपने बच्चे को कहीं भी असुरक्षित देखती है तो अपने दांतों में दबाकर उसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देती है और बच्चे को उसके तीक्ष्ण दांतों से कोई हानि नहीं पहुंचती है। जिन तीक्ष्ण दांतों के जरा सा दवाब से उसके शिकार मारे जाते हैं उन्हीं तीक्ष्ण दांतों से बच्चे सुरक्षित जगहों पर पहुंच जाते हैं।
आपके सामने दोनों अवस्थाएं स्पष्ट है,या तो पूर्ण आस्था श्रद्धा और विश्वास से ईश्वर को वानरी बच्चे की तरह पकड़े रहिए या ईश्वर बिल्ली की तरह आपको सुरक्षित रखने के लिए जैसे और जहां ले जाए, बने रहिए।
ईश्वर सदैव अवसर देते रहते हैं और आपको सुरक्षित रखने का काम करते रहते हैं,आपको अवलोकन करते रहना है और अपने विहित कर्तव्यों का पालन करते रहना है और साथ ही अतीत के कृत कर्मों का पश्चाताप और प्रायश्चित कर लेना है। आपकी अन्तश्चेतना जिसे गलत मानती है,उसकी पुनरावृत्ति नहीं होने देनी है।
वानरी और मार्जारी मार्ग सहज योग की तरह है, ईश्वरीय सत्ता के प्रति पूर्ण निष्ठा और समर्पण कि यह भी एक योग-साधना का ही रुप है,जैसे साधना गति में होती है तो नृत्य में रुपान्तरित हो जाती है और स्थिर होने पर समाधि में रुपान्तरित हो जाती है वैसे ही ये मार्ग समर्पण योग का मार्ग है।

कार्यकारी संपादन : 
शक्ति. रंजना . स्वतंत्र लेखिका. नई दिल्ली. हिंदुस्तान. 


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ए. एंड. एम.मीडिया शक्ति. प्रस्तुति. 
सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : १ / ४.
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सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता : श्री कृष्ण सदा सहायते : आलेख : पृष्ठ : १ / ४ /१ .
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कहाँ सुदामा बापुरो कृष्ण मिताई जोग
भक्त सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता: एक अनुपम कथा.
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डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. 


श्रीकृष्ण और सुदामा 


सुदामा, जिन्हें कुचेला के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त और घनिष्ठ मित्र थे। वे बचपन में श्रीकृष्ण के साथ संदीपनि मुनि के आश्रम में विद्याध्ययन करते थे। सुदामा का जीवन सादगी,भक्ति और मित्रता का अनुपम उदाहरण है। 
श्रीकृष्ण और सुदामा की अमर मित्रता : श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता बचपन से ही अटूट थी। संदीपनि मुनि के गुरुकुल में दोनों ने साथ-साथ वेद, शास्त्र और नैतिक शिक्षा का अध्ययन किया। एक दिन जब वे जंगल में लकड़ियाँ इकट्ठा करने गए, तो अचानक भारी वर्षा आ गई और वे रातभर वहीं ठहरने को मजबूर हो गए। इस कठिन समय में भी उनकी मित्रता और प्रेम और गहरा हो गया।
गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने के बाद दोनों मित्र अपने-अपने जीवन पथ पर आगे बढ़े। श्रीकृष्ण द्वारका के राजा बने, जबकि सुदामा एक निर्धन ब्राह्मण के रूप में जीवन व्यतीत करने लगे। हालांकि उनकी भक्ति और प्रेम कभी नहीं बदला।
निर्धनता में भी भक्ति की चमक सुदामा का जीवन अत्यंत कठिनाई भरा था। उनकी पत्नी भी अत्यंत धर्मपरायण थीं। जब उन्होंने अपने पति की दुर्दशा देखी, तो आग्रह किया कि वे अपने मित्र श्रीकृष्ण से सहायता माँगें। पहले तो सुदामा संकोच करते रहे, लेकिन अंततः वे द्वारका जाने के लिए तैयार हुए। उनकी पत्नी ने उनके लिए थोड़े से चावल बांध दिए, ताकि वे श्रीकृष्ण को भेंट कर सकें।
द्वारका में मित्रता की भव्य परीक्षा : सुदामा जब द्वारका पहुँचे, तो वहाँ के भव्य महलों को देखकर चकित रह गए। क्या श्रीकृष्ण उन्हें अब भी याद करेंगे? लेकिन जैसे ही श्रीकृष्ण को उनके आगमन की सूचना मिली, वे नंगे पैर दौड़ते हुए आए और प्रेमपूर्वक सुदामा को गले लगा लिया।
श्रीकृष्ण ने अपने मित्र का बड़े आदर और स्नेह से स्वागत किया। उन्होंने स्वयं उनके चरण धोए, उन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठाया और बड़े प्रेम से उनकी सेवा की। यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग चकित रह गए कि स्वयं द्वारकाधीश एक साधारण ब्राह्मण की इतनी सेवा कर रहे हैं।
प्रेम का उपहार : चावल के दानों में समाया आशीर्वाद। सुदामा संकोचवश अपनी पोटली नहीं खोल पा रहे थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने जबरदस्ती उसे लेकर उसमें से चावल के दाने निकाल लिए और प्रेमपूर्वक खाने लगे। जैसे ही उन्होंने पहला कौर खाया, सुदामा के घर धन-धान्य की वर्षा होने लगी। दूसरे कौर पर उनका टूटा-फूटा झोपड़ा महल में बदल गया। तीसरा कौर खाने ही वाले थे कि रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण को रोक दिया, क्योंकि सुदामा के लिए इतना ही पर्याप्त था।
घर वापसी और चमत्कार का रहस्य : जब सुदामा घर लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका झोपड़ा अब एक भव्य महल बन चुका था। उनकी पत्नी और बच्चे सुंदर वस्त्रों में सुसज्जित थे। यह देखकर वे अत्यंत भावुक हो गए और भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में और भी लीन हो गए। लेकिन उन्होंने कभी अहंकार को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया और सादगी तथा भक्ति का मार्ग अपनाए रखा।
सीख है की सच्ची मित्रता निःस्वार्थ होती है : सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता प्रेम और विश्वास पर आधारित थी।भक्ति में अपार शक्ति होती है – सुदामा की निःस्वार्थ भक्ति ने उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। भगवान अपने भक्तों की चिंता करते हैं – सुदामा ने कुछ नहीं माँगा, लेकिन श्रीकृष्ण ने उनके जीवन को संवार दिया। धन से अधिक प्रेम और श्रद्धा का महत्व है – सुदामा के पास भले ही धन न था, लेकिन उनके पास भक्ति और निष्ठा थी। संयम और संतोष से जीवन सार्थक बनता है – अपार धन-सम्पत्ति प्राप्त करने के बाद भी सुदामा ने अपनी सादगी नहीं छोड़ी।
भगवान प्रेम और भावना के भूखे होते हैं – श्रीकृष्ण को भोग की नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति की आवश्यकता होती है।
भक्ति और प्रेम का संदेश : भक्ति और प्रेम का संदेश सुदामा और श्रीकृष्ण की कथा भक्ति, निःस्वार्थ प्रेम और सच्ची मित्रता का प्रतीक है। यह हमें यह प्रेरणा देती है कि अगर भक्ति सच्ची हो, तो भगवान स्वयं अपने भक्त की हर विपदा को दूर करते हैं। सुदामा का जीवन त्याग, भक्ति और मित्रता का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिससे हम सभी को सीख लेनी चाहिए।
इस कथा को पढ़कर हमें यह समझ में आता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति ही जीवन का सबसे बड़ा धन है। भौतिक सुख-संपत्ति क्षणिक होती है, लेकिन सच्चा प्रेम और विश्वास सदा के लिए बना रहता है। यही सुदामा और श्रीकृष्ण की अमर मित्रता का संदेश है।

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भगवान कृष्ण के परम भक्त उद्धव: श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र और सलाहकार.
भक्ति, ज्ञान और उनके दिव्य संदेश  : आलेख  : १ / ४ / ०  .

डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. 


कृष्ण : गोपियाँ : उद्धव : संवाद : फोटो : साभार 


भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में कई अद्वितीय भक्तों की भूमिका रही, लेकिन उद्धव जी का स्थान उनमें सर्वोच्च माना जाता है। वे केवल श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र और सलाहकार ही नहीं थे, बल्कि उनकी शिक्षाओं के प्रचारक और योग एवं ज्ञान के प्रतीक भी थे।
उद्धव जी की कथा हमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराती है। यह हमें बताती है कि भगवान की सच्ची भक्ति केवल तर्क और शास्त्र ज्ञान से प्राप्त नहीं होती, बल्कि पूर्ण प्रेम और समर्पण से मिलती है। इस लेख में हम उद्धव जी के जीवन, उनकी भक्ति, भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनके संबंध और "उद्धव संदेश" के महत्व पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
उद्धव जी का परिचय : कौन थे उद्धव ? उद्धव जी वृष्णि वंश के एक प्रतिष्ठित और विद्वान पुरुष थे। वे महर्षि बृहस्पति के शिष्य थे और वेदों, शास्त्रों, योग और नीति में अत्यंत निपुण थे। उनकी बुद्धिमत्ता और आध्यात्मिक ज्ञान के कारण वे द्वारका में श्रीकृष्ण के प्रमुख सलाहकारों में से एक थे।
श्रीकृष्ण के प्रति उद्धव जी की निष्ठा इतनी प्रगाढ़ थी कि वे उनके प्रत्येक कार्य को आदर्श मानते थे। वे श्रीकृष्ण को केवल एक मित्र ही नहीं, बल्कि ब्रह्म का साक्षात स्वरूप मानते थे। उनकी बुद्धिमत्ता और तर्कशक्ति इतनी विलक्षण थी कि वे प्रत्येक विषय पर गहराई से चिंतन कर सकते थे, लेकिन यही ज्ञान बाद में उनके लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षा का कारण बना।
उद्धव और श्रीकृष्ण का अटूट संबंध : भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव के बीच का संबंध केवल मित्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि वह गुरु-शिष्य के पवित्र बंधन में भी बंधा था। श्रीकृष्ण अक्सर उद्धव जी को अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भेजते थे, जिससे पता चलता है कि वे उन पर कितना विश्वास करते थे।
जब द्वारका में श्रीकृष्ण का राज्य था, तब उद्धव ही उनके सबसे भरोसेमंद मंत्री थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने उद्धव को न केवल सांसारिक ज्ञान का प्रतीक माना, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी उन्हें विशेष भूमिका प्रदान की।
उद्धव और गोपियों का संवाद : भक्ति का परम स्वरूप उद्धव का वृंदावन गमन जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए और फिर द्वारका में राज्य स्थापित किया, तब वृंदावन की गोपियाँ, विशेष रूप से राधा जी, उनके वियोग में अत्यंत दुखी थीं। वे श्रीकृष्ण के प्रेम में इतनी लीन थीं कि उन्हें सांसारिक जगत का कोई भान नहीं था।
इस स्थिति को देखकर श्रीकृष्ण ने उद्धव जी को वृंदावन भेजा ताकि वे गोपियों को योग, ज्ञान और ध्यान का उपदेश देकर उनके कष्टों को शांत कर सकें। उद्धव जी को विश्वास था कि वे अपने तर्क और शास्त्रीय ज्ञान से गोपियों को समझा सकेंगे।
गोपियों की अनन्य भक्ति और उद्धव का आत्मबोध : वृंदावन पहुँचने के बाद जब उद्धव जी ने गोपियों से वार्तालाप किया, तो वे चकित रह गए। उन्होंने देखा कि गोपियाँ किसी भी शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं समझतीं; उनके लिए केवल श्रीकृष्ण की स्मृति ही सब कुछ थी।
गोपियों ने उद्धव से कहा : "उद्धव जी! हमें योग, ध्यान, ज्ञान और शास्त्रों की आवश्यकता नहीं। हमारा मन तो केवल श्रीकृष्ण में ही लीन है। जब हम उन्हें देख नहीं पातीं, तो हमारा हृदय जलने लगता है। क्या कोई ज्ञान इस वेदना को शांत कर सकता है? "
यह सुनकर उद्धव जी को यह अहसास हुआ कि जो प्रेम गोपियों के हृदय में था, वह किसी भी शास्त्रीय ज्ञान से कहीं अधिक ऊँचा था। यह भक्ति केवल प्रेम नहीं थी, बल्कि आत्मा का संपूर्ण समर्पण थी।
उद्धव का ज्ञान से प्रेम की ओर परिवर्तन : गोपियों की भक्ति ने उद्धव जी के जीवन को पूरी तरह बदल दिया। उन्हें यह अहसास हुआ कि भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप निष्काम प्रेम और समर्पण है, न कि केवल ज्ञान और तर्क। इस घटना के बाद उद्धव जी ने श्रीकृष्ण से कहा: "हे प्रभु! आपने मुझे गोपियों के पास भेजा था ताकि मैं उन्हें ज्ञान दे सकूँ, लेकिन अब मैं ही उनसे सीखकर आया हूँ। कृपया मुझे भी ऐसी ही भक्ति प्रदान करें !" इस प्रकार, उद्धव जी का यह अनुभव भक्ति मार्ग का एक महत्वपूर्ण संदेश बन गया, जिसे "उद्धव संदेश" के रूप में जाना जाता है।
उद्धव संदेश : भक्ति का परम स्वरूप : उद्धव जी की वृंदावन यात्रा ने उन्हें यह सिखाया कि -ज्ञान से बढ़कर भक्ति होती है – केवल शास्त्र पढ़ना और तर्क करना पर्याप्त नहीं है; भगवान के प्रति निष्काम प्रेम ही सच्ची भक्ति है। भक्ति में अहंकार नहीं होता – गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति इतनी समर्पित थीं कि वे अपने अस्तित्व तक को भूल चुकी थीं। भक्ति का मार्ग सरल है – प्रेम और समर्पण से ही भगवान को पाया जा सकता है; कठिन योग और ज्ञान आवश्यक नहीं। इस संदेश के कारण उद्धव जी को भक्ति योग का प्रचारक माना जाता है।
उद्धव और द्वारका का अंत : जब द्वारका का नाश होने वाला था और भगवान श्रीकृष्ण अपनी लीलाओं का समापन कर रहे थे, तब उद्धव जी ने उनसे मार्गदर्शन माँगा। श्रीकृष्ण ने उन्हें हिमालय जाने और भक्ति एवं ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का निर्देश दिया।
उद्धव जी ने भगवान की आज्ञा का पालन किया और अपना शेष जीवन हिमालय में तपस्या और ध्यान में व्यतीत किया। उद्धव जी की कथा हमें सिखाती है कि भगवान की सच्ची भक्ति में तर्क और ज्ञान से अधिक प्रेम और समर्पण का स्थान है। गोपियों का प्रेम हमें दिखाता है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष योग या विद्या की आवश्यकता नहीं, केवल हृदय की शुद्धता आवश्यक है।
उद्धव संदेश भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश है – भगवान को केवल प्रेम और समर्पण से पाया जा सकता है।
उद्धव जी की कथा केवल श्रीकृष्ण भक्तों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी साधकों के लिए एक प्रेरणा है। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि जब भक्ति निष्काम और पूर्ण समर्पण के साथ की जाती है, तब भगवान स्वयं अपने भक्त को अपना बना लेते हैं।



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सम्पादकीय : पद्य : आलेख : संग्रह : पृष्ठ : २ . 
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टाइम्स मीडिया शक्ति प्रस्तुति 
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डॉ. सुनीता मधुप.
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भाविकाएँ
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श्री राधिका कृष्ण सदा सहायते 
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भाविकाएँ : भक्ति. 

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फोटो : श्री कृष्ण : राधा : मीरा. 

 जीवन भर साथ निभाने  
की बात की है  अगर 
तो सम्यक ' वाणी ' , ' आस्था ', ' प्रेम ' , ' सहिष्णुता ' 
की कभी भी आस नहीं छोड़ते, 
श्री हरि : राम : कृष्ण ही शिव है
मेरे जीवन की अनंत ' शक्ति ' हैं 
थामा है अगर हाथ 
तो कभी साथ नहीं छोड़ते 
त्रि - शक्ति मय हैं हम 
मत भूलिए  संकट की वेला में ही होते 
त्रि - शक्ति* पूर्ण 
श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते.
साथ निभाने  की बात की है 
तो कभी भी आस नहीं छोड़ते.

 शक्ति * डॉ. सुनीता मधुप. 

 
एम. एस. मीडिया शक्ति प्रस्तुति
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 डॉ. आर. के. दुबे.

 : सम्पादकीय :  पद : आलेख :
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कान्हा मोका फागुन में छोड़ जाए : २ /० 
होली गीत. 
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प्रथम  मीडिया शक्ति प्रस्तुति
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श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते.
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समाज सेवी. डॉ. पवन कुमार. नेत्र चिकित्सक एवं फेको सर्जन.मुजफ्फरपुर समर्थित.

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राधिकाकृष्ण : सम्पादकीय : पृष्ठ :३ .
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3.Shakti's Project.


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सम्पादकीय.प्रतीकात्मक आध्यात्मिक केंद्र.
राधाकृष्ण मंदिर.
दर्शन
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श्री. राधेकृष्ण.
सदा सहायते
मुक्तेश्वर.नैनीताल.
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   @
सम्पादकीय आध्यात्मिक प्रभार व संरक्षण .
श्री गोविन्दजी. राधारमण.

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ए एंड एम मीडिया. शक्ति. समर्थित
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सम्पादकीय गद्य आलेख : संग्रह : कल  : पृष्ठ : ४
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सम्पादकीय गद्य आलेख : संग्रह : कल  : पृष्ठ : ४ / २.
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कृष्ण भक्त राधारानी : लाडली : प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा हैं  बरसाने वाली.

    
डॉ. संतोष आनंद मिश्रा.   
लेखक. ब्लॉगर.
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भूमिका : राधा रानी भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में भक्ति, प्रेम और समर्पण की पराकाष्ठा मानी जाती हैं। वे श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिका और भक्त हैं। हिंदू धर्म, विशेष रूप से वैष्णव परंपरा में, राधा-कृष्ण को एक अटूट आध्यात्मिक युगल के रूप में पूजा जाता है। उनकी प्रेम गाथा केवल लौकिक प्रेम नहीं है, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक भी है।
राधा रानी का जीवन परिचय : राधा रानी का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में स्थित बरसाना नामक स्थान पर हुआ था। वे वृषभानु गोप और उनकी पत्नी कीर्ति देवी की पुत्री थीं। जन्म से ही वे दिव्य लक्षणों से युक्त थीं और श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अगाध भक्ति बचपन से ही प्रकट हो गई थी।
कई पुराणों और ग्रंथों में उनके जन्म से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ मिलती हैं। कुछ ग्रंथों के अनुसार, वे श्रीकृष्ण की नित्य संगिनी और गोलोक धाम की शक्ति स्वरूपा हैं, जो उनकी लीलाओं के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं।
राधा-कृष्ण का दिव्य प्रेम : श्रीकृष्ण और राधा रानी के प्रेम को केवल सांसारिक दृष्टि से नहीं देखा जाता, बल्कि इसे आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है। यह प्रेम किसी बंधन में बंधा हुआ नहीं था, बल्कि यह त्याग, समर्पण और भक्ति से परिपूर्ण था।
राधा-कृष्ण की प्रेम लीला वृंदावन, बरसाना, नंदगांव, और गोवर्धन जैसे स्थलों पर फैली हुई थी। रासलीला, झूलन उत्सव, और होली जैसे पर्व उनके प्रेम की अनमोल झलक प्रस्तुत करते हैं। श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण, और गीता गोविंद में इस दिव्य प्रेम का विस्तृत वर्णन मिलता है।


राधा रानी की भक्ति का स्वरूप :कृष्ण के साथ अद्वैत प्रेम : साभार. 

राधा रानी की भक्ति का स्वरूप : राधा रानी की भक्ति को माधुर्य भक्ति कहा जाता है, जिसमें भक्त और भगवान के बीच आत्मिक एकता होती है। भक्तिरस शास्त्रों में भक्ति के चार प्रमुख रूप बताए गए हैं—
१. दास्य भाव : भगवान की सेवा करना 
२.सख्य भाव : भगवान को मित्र के रूप में देखना
३. वात्सल्य भाव भगवान को संतान रूप में मानना
४. माधुर्य भाव भगवान को प्रेमी रूप में पूजना
राधा रानी की भक्ति माधुर्य भाव की चरम अवस्था को दर्शाती है। उन्होंने अपना सर्वस्व श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था। यह भक्ति इस बात का प्रतीक है कि जब प्रेम पूर्ण समर्पण से युक्त होता है, तो वह सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य हो जाता है।
राधा-कृष्ण भक्ति परंपरा में योगदान : राधा-कृष्ण के प्रेम को संतों और भक्त कवियों ने अपनी काव्य साधना का विषय बनाया है। सूरदास, रसखान, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी हरिदास जैसे भक्तों ने राधा-कृष्ण की प्रेमलीला को अपने भजन और काव्य में अभिव्यक्त किया। वृंदावन और बरसाना में आज भी राधा-कृष्ण की प्रेम भक्ति की गूंज सुनाई देती है।चैतन्य महाप्रभु ने तो स्वयं को राधा रानी की भक्ति में लीन कर दिया था और उनके अनुयायियों ने वैष्णव भक्ति परंपरा को पूरे भारत में फैलाया।
राधा रानी का आध्यात्मिक महत्व : राधा रानी को श्रीकृष्ण की ह्लादिनी शक्ति माना जाता है, जो भक्ति और प्रेम का स्वरूप है। उन्हें महाभाव स्वरूपिणी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि वे प्रेम की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर चुकी हैं।
वैष्णव संतों के अनुसार, जब तक कोई भक्त राधा रानी की कृपा प्राप्त नहीं करता, तब तक वह श्रीकृष्ण की भक्ति में संपूर्ण नहीं हो सकता। इसीलिए वृंदावन में भक्तजन "राधे राधे" का जाप करते हैं और राधा नाम को ही सबसे पवित्र मानते हैं।
राधा अष्टमी और उनकी पूजा : राधा रानी की जयंती को राधा अष्टमी के रूप में मनाया जाता है। यह जन्माष्टमी के ठीक १५  दिन बाद आती है। इस दिन विशेष रूप से वृंदावन, बरसाना, और मथुरा में भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं। बरसाना में राधा रानी का मंदिर, जिसे श्रीजी मंदिर कहा जाता है, लाखों भक्तों की आस्था का केंद्र है।
राधा रानी से प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक संदेश : राधा रानी का जीवन हमें कई आध्यात्मिक संदेश देता हैं 
१. अनन्य भक्ति – उनकी भक्ति हमें सिखाती है कि ईश्वर से प्रेम निष्काम और पूर्ण समर्पण से युक्त होना चाहिए।
२. त्याग और समर्पण – उन्होंने अपने अस्तित्व को श्रीकृष्ण के लिए समर्पित कर दिया, जिससे पता चलता है कि सच्चा प्रेम त्यागमयी होता है।
३.आध्यात्मिक प्रेम की महिमा – उनका प्रेम यह दर्शाता है कि जब प्रेम आत्मा का प्रेम होता है, तो वह शुद्ध और शाश्वत हो जाता है।
राधा रानी केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति और प्रेम की दिव्य शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे श्रीकृष्ण की आत्मीय शक्ति हैं और उनकी भक्ति के बिना कृष्ण भक्ति अधूरी मानी जाती है। यही कारण है कि आज भी वृंदावन और बरसाना में भक्तजन "राधे-राधे" कहकर अपने हृदय को प्रेम और भक्ति से भरते हैं।
राधा रानी का जीवन प्रेम, भक्ति और समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण है। उनकी भक्ति हमें यह सिखाती है कि जब प्रेम निष्कलुष और पूर्ण समर्पण से युक्त हो, तो वह सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य हो जाता है।
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स्तंभ संपादन : राधारानी : लाडली : प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा हैं
शक्ति.सम्पादिका. डॉ. नूतन : लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड.
पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति  मीडिया. 

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सम्पादकीय : आलेख : ब्रज की गोपियाँ : पृष्ठ : ४ / १.
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डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. 

 ब्रज की गोपियाँ : रासलीला : कृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा :

महान भक्त: ब्रज की गोपियाँ : भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में ब्रज की गोपियाँ भक्ति, प्रेम और आत्मसमर्पण की सबसे उत्तम मिसाल मानी जाती हैं। उनके प्रेम की गहराई इतनी असीम थी कि वह लौकिक नहीं बल्कि दिव्य प्रेम में परिवर्तित हो गई। यह प्रेम सांसारिक आसक्ति से परे था और केवल भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण समर्पण का प्रतीक था। उनकी भक्ति श्रीमद्भागवत महापुराण, महाभारत, हरिवंश पुराण और कई वैष्णव ग्रंथों में विशेष रूप से वर्णित है। गोपियाँ न केवल श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिकाएँ थीं, बल्कि वे जीवात्मा के उस रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं जो परमात्मा की ओर भागने को तत्पर रहता है। उनकी भक्ति "रागानुगा भक्ति" का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती है, जिसमें भक्त भगवान के प्रति सहज प्रेम और अनुराग से भरा होता है।
गोपियों का जीवन: प्रेम और भक्ति का संगम : गोपियाँ वृंदावन, नंदगांव और बरसाना की वे साधारण ग्वालिनें थीं, जो अपने परिवार और गृहस्थी में व्यस्त रहती थीं। वे दिनभर घर-गृहस्थी के कामों में लगी रहतीं, लेकिन उनके मन और हृदय में केवल श्रीकृष्ण ही बसते थे। जब वे श्रीकृष्ण को देखतीं, तो उनकी आँखों में प्रेम छलक उठता और जब वे दूर होते, तो विरह में व्याकुल हो उठतीं। गोपियों की भक्ति केवल बाहरी नहीं थी, बल्कि यह एक आंतरिक साधना थी। उनका प्रेम इतना अनन्य था कि उन्होंने संसार के सभी नियमों और बंधनों को त्यागकर केवल कृष्ण में ही अपनी आत्मा को विलीन कर दिया।
गोपियों की निश्छल भक्ति : गोपियों की भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता थी कि यह किसी स्वार्थ या फल की इच्छा से प्रेरित नहीं थी। उन्होंने न तो मोक्ष की कामना की, न ही किसी सांसारिक सुख की। वे केवल कृष्ण की सेवा, उनके दर्शन और उनके सान्निध्य की अभिलाषी थीं। उनकी भक्ति उस आत्मसमर्पण का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसे संपूर्ण वैष्णव परंपरा ने अपने मूल सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है: "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।"  भगवद्गीता  ९. २२ 
अर्थात्, जो लोग अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, मैं स्वयं उनके योग : आवश्यकताओं  और क्षेम सुरक्षा  का वहन करता हूँ। गोपियाँ इसी अनन्य भक्ति का जीता-जागता प्रमाण थीं।
रासलीला : प्रेम की पराकाष्ठा : रासलीला ब्रज की गोपियों की भक्ति का सबसे दिव्य और रहस्यमय पक्ष है। यह केवल एक नृत्य नहीं था, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच के प्रेम का साकार रूप था। जब श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली बजाई, तो सभी गोपियाँ अपनी गृहस्थी और सांसारिक कार्यों को छोड़कर उनकी ओर दौड़ पड़ीं। यह प्रतीक था कि जब भगवान भक्त को पुकारते हैं, तो उसे संसार की हर चीज़ को त्यागकर उनकी शरण में जाना चाहिए। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित है कि जब गोपियाँ रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं, तब उन्होंने यह अनुभव किया कि श्रीकृष्ण हर गोपी के साथ व्यक्तिगत रूप से नृत्य कर रहे हैं। यह भगवान की सर्वव्यापकता और भक्त के प्रति उनकी व्यक्तिगत कृपा को दर्शाता है। यह लीलाएँ केवल ऐतिहासिक घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि उनमें गहरा आध्यात्मिक रहस्य छिपा है। वे सिखाती हैं कि जब भक्त अपने अहंकार, आसक्ति और सांसारिक बंधनों को छोड़ देता है, तब वह भगवान के साथ एक हो सकता है।
गोपियों का विरह: भक्ति की परिपक्वता : जब श्रीकृष्ण मथुरा चले गए, तो ब्रज की गोपियाँ उनके वियोग में अत्यधिक दुखी हो गईं। उन्होंने रो-रोकर अपने प्राणों को तड़पाया और अपने शरीर की सुध-बुध तक खो दी। वे वृंदावन के कुंजों में, यमुना के तटों पर, और उन सभी स्थानों पर भटकतीं, जहाँ-जहाँ श्रीकृष्ण कभी गए थे।वियोग की यह स्थिति भक्त की भक्ति को परिपक्व बनाती है। जब भगवान दूर चले जाते हैं, तब ही भक्त का प्रेम और भी तीव्र हो जाता है। यही कारण है कि गोपियों का विरह भक्ति का सर्वोच्च रूप माना गया है।श्रीमद्भागवत में गोपियों द्वारा गाए गए "गोपि-गीत" (भागवत 10.31) को भक्ति साहित्य में सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है। इसमें गोपियाँ कृष्ण को पुकारती हैं और उनके विरह में अपना प्रेम व्यक्त करती हैं।
गोपियों की भक्ति का प्रभाव और महत्व : गोपियों की भक्ति ने भारतीय संतों और भक्तों को सदियों से प्रेरित किया है। चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीराबाई और अन्य अनेक संतों ने गोपियों की भक्ति को अपने जीवन में अपनाया और उसे अपनी साधना का आधार बनाया।
भक्ति आंदोलन पर प्रभाव : भक्ति आंदोलन में गोपियों की भक्ति को विशेष महत्व दिया गया। संतों ने इसे यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया कि ईश्वर केवल उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो निस्वार्थ प्रेम और पूर्ण समर्पण के साथ उनकी भक्ति करते हैं। चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण की गोपी-भाव वाली भक्ति को अपनाकर प्रेम की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि गोपियों का प्रेम भक्ति की चरम अवस्था है और हर भक्त को इसी मार्ग पर चलना चाहिए।
साहित्य और कला में गोपियाँ : गोपियों के प्रेम और भक्ति को आधार बनाकर अनेक ग्रंथ लिखे गए। सूरदास की रचनाएँ गोपियों के कृष्ण-विरह को अत्यंत मार्मिक रूप में चित्रित करती हैं। रसखान ने भी अपनी रचनाओं में गोपियों के प्रेम को अमर कर दिया। इसके अलावा, संगीत, नृत्य और चित्रकला में भी गोपियों की भक्ति को अत्यंत सुंदर रूप में प्रस्तुत किया गया है। आज भी मंदिरों में कीर्तन और भजन में गोपियों की भक्ति का गान किया जाता है।
गोपियाँ – भक्ति का आदर्श स्वरूप : ब्रज की गोपियाँ भक्ति और प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण हैं। उनकी भक्ति हमें सिखाती है कि ईश्वर को पाने का मार्ग केवल निष्काम प्रेम और आत्मसमर्पण है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि जब कोई अपने अहंकार, मोह और सांसारिक बंधनों को त्यागकर पूर्ण रूप से भगवान को समर्पित कर देता है, तब वह भगवान के प्रेम का साक्षात्कार कर सकता है। गोपियों का प्रेम केवल लौकिक प्रेम नहीं था, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन की गाथा थी। यही कारण है कि उनकी भक्ति आज भी भक्तों के लिए आदर्श बनी हुई है। उनके जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि भक्ति का अर्थ केवल पूजा-अर्चना नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण और प्रेम है।इसलिए, गोपियों की भक्ति को समझना और उसे अपने जीवन में अपनाना, भगवान की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल और सुंदर मार्ग है।
राधे राधे......

डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर.


सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : ४ /० .
 श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते. गोविन्द बोलो हरि गोपाल बोलो. 
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डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. 
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कृष्ण भक्त द्रौपदी : उनकी भक्ति और श्रीकृष्ण का सखा भाव * : महाभारत के सबसे मार्मिक और प्रेरणादायक प्रसंगों में से एक है द्रौपदी और श्रीकृष्ण की मित्रता। द्रौपदी केवल पांडवों की पत्नी ही नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त भी थीं। वे उन्हें अपना सखा (मित्र) मानती थीं और हर कठिन परिस्थिति में कृष्ण का स्मरण करती थीं। बदले में श्रीकृष्ण ने भी हर संकट में उनकी सहायता की और उनकी रक्षा का दायित्व निभाया।
द्रौपदी और श्रीकृष्ण की पहली भेंट : द्रौपदी का जन्म अग्नि से हुआ था और वे पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री थीं। जब उनके स्वयंवर का आयोजन हुआ, तो इसमें श्रीकृष्ण भी उपस्थित थे। उन्होंने स्वयंवर में कुछ नहीं किया, लेकिन वे जानते थे कि अर्जुन ही वह वीर हैं जो इस परीक्षा में सफल होंगे। स्वयंवर के पश्चात जब अर्जुन द्रौपदी को अपने घर ले गए और माता कुंती ने अनजाने में कहा कि "जो भी लाए हो, उसे आपस में बाँट लो," तब द्रौपदी को पाँचों पांडवों की पत्नी बनना पड़ा।
इस कठिन स्थिति में भी श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को सांत्वना दी और कहा कि ' तुम्हारा विवाह किसी साधारण पुरुष से नहीं, बल्कि पाँच महान योद्धाओं से हुआ है, जो धर्म के रक्षक हैं। तुम सदैव धर्म का पालन करना और मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा। '

शॉर्ट रील : माधव की रक्षा : द्रौपदी के लिए. 


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हमारी सम्पादकीय शक्ति * समूह का विश्वास : हे माधव ! यदि आप मेरे जीवन के सारथी हो जाए तो मैं किसी ऐसे नूतन विश्व का निर्माण कर ही लूंगा
जिसमें मात्र अनंत ( श्री लक्ष्मीनारायण ) शिव ( कल्याणकारी ) शक्तियाँ ही होगी
होलिका की अग्नि में मेरे अंतर्मन की चिर ईर्ष्या, पीड़ा ,द्वेष ,और बुराई जलकर भस्म हो.....
हे : परमेश्वर : आदि शक्ति : जीवन के इस अंतहीन सफ़र में तू मुझे मात्र ' सम्यक साथ ' प्रदान कर जिससे मेरी ' दृष्टि ' , ' सोच ' ,' वाणी ', और ' कर्म ' परमार्जित हो सके...यह हमसबों का सम्मिलित विश्वास है।
द्रौपदी की साड़ी का उपहार और श्रीकृष्ण का ऋण  *: एक कथा के अनुसार, जब शिशुपाल का वध करने के दौरान श्रीकृष्ण के हाथ से खून बहने लगा, तो द्रौपदी ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर बाँध दिया। यह श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम और सेवा-भाव का प्रतीक था।
इस पर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा, "सखी! तुमने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं इसका ऋण अवश्य चुकाऊँगा। जब भी तुम संकट में होगी, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।" यही वचन आगे चलकर उनके चीरहरण के समय पूरा हुआ।
द्रौपदी का चीरहरण और श्रीकृष्ण की कृपा : जब कौरवों ने पांडवों को छल से जुए में हरा दिया, तब दुर्योधन ने क्रोध में आकर द्रौपदी को भरी सभा में खींचकर लाने का आदेश दिया। दुःशासन ने उनका अपमान करने का प्रयास किया और उनका वस्त्र खींचना शुरू कर दिया।
उस समय द्रौपदी ने पहले अपने पतियों को देखा, फिर सभा में बैठे अन्य वरिष्ठ जनों से सहायता माँगी, लेकिन कोई उनकी सहायता के लिए आगे नहीं आया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण को पुकारा और संपूर्ण समर्पण के साथ कहा,  ' हे गोविंद ! हे माधव ! मेरी लाज अब केवल आपके हाथ में है। '
उनकी भक्ति और आर्त पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने अपनी कृपा से उनकी साड़ी को इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें नग्न नहीं कर सका और अंततः थककर गिर पड़ा।
यह घटना दर्शाती है कि जब कोई भक्त संपूर्ण समर्पण के साथ श्रीकृष्ण को पुकारता है, तो वे स्वयं उसकी रक्षा के लिए आ जाते हैं।

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ए. एंड. एम.मीडिया शक्ति. प्रस्तुति.


गतांक से आगे : १.
डॉ. संतोष आनन्द मिश्रा. 
इतिहासकार, साहित्यकार, ब्लॉगर. 
श्री राधिकाकृष्ण सदा सहायते.

वनवास के दौरान श्रीकृष्ण की सहायता : जब पांडव वनवास में थे, तब एक दिन महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित उनके आश्रम में आए। युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया, लेकिन उनके भोजन के लिए कुछ भी उपलब्ध नहीं था। उसी समय श्रीकृष्ण वहाँ पहुँचे और उन्होंने द्रौपदी से भोजन माँगा।
द्रौपदी ने दुखी होकर कहा, "हे केशव ! मेरे पास कुछ भी शेष नहीं है।"
श्रीकृष्ण ने कहा, "मुझे तुम्हारे पात्र को देखने दो।" जब उन्होंने पात्र देखा, तो उसमें भोजन का एक छोटा सा अंश बचा हुआ था। श्रीकृष्ण ने उसे खाकर कहा, "अब संपूर्ण संसार तृप्त हो गया है।"
उसी समय, महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्य, जो पास में ही स्नान कर रहे थे, अचानक पेट भर जाने जैसा अनुभव करने लगे। वे समझ गए कि श्रीकृष्ण ने भोजन ग्रहण कर लिया है, जिससे वे भी संतुष्ट हो गए। वे बिना कुछ माँगे वहाँ से चले गए और पांडवों को संकट से मुक्ति मिली।
महाभारत युद्ध और द्रौपदी की प्रार्थना : जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ, तो द्रौपदी ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे उनके पतियों की रक्षा करें। श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि धर्म की विजय होगी और दुर्योधन जैसे अधर्मी नष्ट होंगे।
युद्ध के अंत में, जब अश्वत्थामा ने कौरवों की हार के बदले में द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या कर दी, तब वह अत्यंत शोक में डूब गईं। श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना दी और कहा, "हे सखी! यह संसार नश्वर है। जो आया है, उसे एक दिन जाना ही है। लेकिन सत्य और धर्म कभी नष्ट नहीं होते। तुम्हारे पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए हैं और स्वर्ग में स्थान पा चुके हैं।"
द्रौपदी का जीवन और श्रीकृष्ण की भक्ति : द्रौपदी ने अपने जीवन भर श्रीकृष्ण को सखा और आराध्य के रूप में माना। उनकी भक्ति में संपूर्ण समर्पण था, और श्रीकृष्ण ने भी उन्हें सदैव अपनी कृपा प्रदान की।
महाभारत के अंत में, जब पांडव स्वर्गारोहण के लिए हिमालय की ओर गए, तब द्रौपदी सबसे पहले गिर गईं। युधिष्ठिर ने कहा कि यह इसलिए हुआ क्योंकि द्रौपदी ने पाँचों पांडवों में अर्जुन को सबसे अधिक प्रेम किया था। लेकिन यह भी सत्य है कि उनकी सबसे प्रिय मित्रता श्रीकृष्ण के साथ थी, जिन्होंने हर परिस्थिति में उनकी रक्षा की।
द्रौपदी और श्रीकृष्ण की मित्रता प्रेम, विश्वास और भक्ति का अद्भुत उदाहरण है। यह दर्शाता है कि जब एक भक्त संपूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान को पुकारता है, तो वे स्वयं उसकी रक्षा के लिए आते हैं।
द्रौपदी की कथा हमें सिखाती है कि चाहे संकट कितना भी बड़ा क्यों न हो, अगर भक्ति सच्ची हो और विश्वास अटूट हो, तो भगवान सदैव अपने भक्त की रक्षा करते हैं।

स्तंभ संपादन : शक्ति.सम्पादिका. डॉ.नूतन : लेखिका. 
देहरादून : उत्तराखंड.
पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति *  मीडिया. 
शक्ति.सम्पादिका. डॉ.नूतन : लेखिका. देहरादून : उत्तराखंड.
पृष्ठ सज्जा : महाशक्ति *  मीडिया. 


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ए. एंड. एम.मीडिया शक्ति. प्रस्तुति. 
सम्पादकीय : आलेख : पृष्ठ : ४.
सम्पादकीय : आलेख :

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ए एंड एम मीडिया. शक्ति. समर्थित
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सम्पादकीय पद्य आलेख : संग्रह : कल  : पृष्ठ : ४
 
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आपने कहा : शब्द चित्र : पृष्ठ : ५ 
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संपादन.
संयुक्त मीडिया प्रस्तुति शक्ति  
शक्ति. डॉ. नूतन.भावना. रश्मि 
उत्तराखंड. देहरादून. 


सिद्धार्थ 
सिद्धि के लिए अर्थ : आपने कहा : 

अत्यधिक संघर्ष के बाद भी जब आप सफल नहीं हो पाते हैं 
तो रास्ते बदलिए सिद्धांत नहीं क्योंकि पेड़ भी हमेशा पत्ते बदलते हैं जड़ें नहीं 
*

एम एस मीडिया. शक्ति. समर्थित
*
नैना देवी डेस्क.नैनीताल 

युगाब्द ५१२७
विक्रम संवत् २०८२
वर्ष प्रतिपदा से जुड़े सामाजिक, ऐतिहासिक संदर्भ :
१. ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति.
२ . भारत में प्रचलित सभी सम्वत्सरों का प्रथम दिन.
३ . मार्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का राज्याभिषेक.
४ . राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ० हेडेगवार जी का जन्म दिवस.
५ . नवरात्रों का आरम्भ ( शक्ति आराधना )
६ . महर्षि दयानंद द्वारा आर्य समाज की स्थापना.
७ . धर्मराज युधिष्ठिर का राजतिलक.
८ . सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शकों को परास्त कर विक्रम सम्वत् आरम्भ.

चलते चलते : पृष्ठ : ५
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परिचय एवं पहचान दोनों में  बहुत बड़ा अंतर है …..
क्योंकि परिचय में आवरण हैऔरपहचान में व्यक्तित्व की सुगन्ध...... 

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अनुभव और कर्म ये दो हमारे गुरु हैं ,दोनों ही हमेशा हमारे साथ चलते हैं ।
कर्म परिस्थिति से लड़ना सिखाता है ,और अनुभव जीत हासिल करना ….।।

*
नववर्ष ह्रदय गत सन्देश तुम्हारे लिए  
सत्य की तलाश सतत है ....
मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ ....मैंने बहुत सहा है ....बस अब देखना आगे कोई गलती 
दो बारा नहीं हो...कम से कम अपनों के लिए तो अच्छा करो...
सदैव मंगल हो ....अनंत शिव शक्तियाँ साथ हो 
  बस तुम्हारे लिए

@ डॉ. मधुप. 








































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